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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४५९/१०८२ द्रव्य में गुण का आरोप किया जाये उसे गुणारोप कहा जाता है । जैसे कि, “ज्ञानमय आत्मा" यहाँ आत्मद्रव्य में ज्ञानगुण का आरोप करके किया गया यह कथन हैं ।...(२) वर्तमानकाल में अतीतकाल का आरोप करना या वर्तमानकाल में अनागतकाल का आरोप करना उसे कालारोप कहा जाता हैं । - अद्य दीपोत्सवे वीरनिर्वाणम् - आज दीपोत्सव के दिन वीर परमात्मा का निर्वाण है - यहाँ वर्तमानकाल में अतीतकाल का आरोप किया गया हैं । वीरनिर्वाण अतीतकाल में हुआ हैं । उसका आरोप वर्तमानकालीन दीपोत्सव में किया गया हैं । - अद्येव पद्मनाभनिर्वाणमा - आज दीपोत्सव के दिन ही पद्मनाभ जिन का निर्वाण हैं । यहाँ वर्तमानकाल में अनागतकाल का आरोप किया गया हैं । पद्मनाभ प्रभु का निर्वाण भविष्य में (अनागत काल में) होनेवाला हैं । उसका आरोप वर्तमानकाल में किया गया हैं । (३) कारण में कार्य का आरोप किया जाये वह कार्यारोप कहा जाता हैं और कार्य में कारण का आरोप किया जाये वह कारणारोप हैं । ये दोनो आरोप भी नैगमनय से संभव होते हैं । बाह्य क्रिया को धर्म कहना, उसमें कारण में कार्य का आरोप किया गया हैं । बाह्य क्रिया धर्म का कारण हैं । धर्म के कारण को धर्म के रूप में कथन करना वह कारण में कार्यारोप हैं । (४) (२) संकल्प : संकल्प यानी कोई भी काम करने का दृढ निर्धार । संकल्पपूर्ति के लिए जो क्रिया हो वह स्वपरिणामरूप हैं और वह अंतिम क्रिया तक पहुँचने के लिए जो अवान्तर क्रियायें हो, वह कार्यान्तर परिणाम हैं । संकल्प को सिद्ध करने के लिए अन्य जो कोई कार्य किया जाये उसे भी संकल्प का ही कार्य कहा जाता हैं । प्रस्थक बनाने से पहले लकडी लाने आदि के सभी कार्य भी संकल्प के ही कार्य कहे जाते हैं । पहले उदा बढ़ई को पूछे हुए प्रश्न और उत्तर संकल्परूप नैगम की दृष्टि से सच्चे हैं । इस नय की मान्यता के अनुसार जब से संकल्प किया तब से वह संकल्प पूर्ण न हो तब तक उसके आनुषंगिक सभी क्रियायें संकल्प की ही कही जाती हैं । (३) अंश : अंश का पूर्ण में उपचार किया जाये वह अंश नैगम नय की दृष्टि से शक्य बनता है । जैसे कि, कपडे का एक भाग (अंश) कट जाने पर भी 'कपडा कट गया' ऐसा जो व्यवहार होता है, वह अंश नैगमनय की दृष्टि से होता है। उसके दो भेद हैं । (१) भिन्न और (२) अभिन्न । वस्तु का जो अंश, कि जो वस्तु से भिन्न हैं, उसे आश्रय में रखकर अंश का पूर्ण में उपचार किया जाये वह भिन्न अंश नैगमनय है और वस्तु का जो अंश, कि जो वस्तु से अभिन्न हैं, उसे आश्रय में रखकर अंश का पूर्ण में उपचार किया जाये, वह अभिन्न अंश नैगमनय कहा जाता है । "उपचार" भी नैगमनय का ही प्रकार हैं । मुख्य का अभाव होने पर भी प्रयोजन से उपचार प्रवर्तित होता हैं । वह उपचार भी संबंधाविनाभाव, संश्लेषसंबंध, परिणामपरिणामिसंबंध, श्रद्धा-श्रद्धेय संबंध, ज्ञानज्ञेय संबंध, चारित्रचर्या संबंध इत्यादि स्वरूप हैं |(32) जगत में जितने भी औपचारिक व्यवहार प्रवर्तित हैं, वे सभी इस नय के आधार पर प्रवर्तित हैं। नैगमनय को अभिमत चारनिक्षेप : नैगमनय के लक्षण और प्रकार का निरूपण करने के बाद “नैगमनय" के अभिमत कितने निक्षेप हैं ? इस का उदाहरण सहित विवरण नयरहस्य ग्रंथ के आधार से किया जाता हैं । अस्य च चत्वारोऽपि निक्षेपा अभिमता नाम, स्थापना, द्रव्यं, भावश्चेति । घट इत्यभिधानमपि घट एव, "अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया" इति वचनात, वाच्यवाचकयोरत्यन्तभेदे प्रतिनियतपदशक्त्यनुपपत्तेश्च । 32.मुख्याभावे सति प्रयोजननिमित्ते चोपचारः प्रवर्तते । सोऽपि सम्बन्धाविनाभावः, संश्लेषः सम्बन्धः, परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धेय सम्बन्धः, ज्ञानज्ञेय सम्बन्धः, चारित्रचर्या सम्बन्धश्चेत्यादि । (नयचक्रालापपद्धतिः) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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