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________________ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद ४५३/१०७६ उत्पन्न करता । परन्तु उस काल में भी दाह का उत्पादक उष्ण पर्याय अग्नि में रहता है इसलिए इस प्रकार का स्थिर पर्याय अर्थक्रियाकारित्व से उपलक्षित होता है, उस काल में भी दाह के उत्पन्न करने की योग्यता अग्नि में रहती है, वृक्ष आदि अर्थ के साथ सम्बन्ध न होने पर ज्ञान भी प्रकाशन नहीं करता, परन्तु उस काल में भी स्थिर ज्ञान अर्थ के प्रकाशन की योग्यता से युक्त रहता है । अर्थ प्रकाशन की योग्यता और अनेक सुख आदि अर्थ पर्यायों में स्थिरता के कारण चैतन्य व्यंजन पर्याय है । सत्त्व भी अन्य पर्यायों में स्थिर रहता है, इसलिए यहाँ पर व्यंजन पर्याय कहा गया है । इन में सत्त्व विशेषण है और चैतन्य विशेष्य है इसलिए यहाँ पर नैगमनय है ।। जो पर्याय धर्मी में अतीत और अनागत काल में नहीं है किन्तु वर्तमान काल में है वह अर्थपर्याय है, यह पर्याय प्रतिक्षण भिन्न होनेवाली वस्तु के स्वरूप में रहता है । अब इस विषय में विशेष स्पष्टता करते हुए जैनतर्क भाषा में कहते हैं कि, वस्तु पर्यायवद् द्रव्यमिति द्रव्ययोर्मुख्यामुख्यतया विवक्षणम्(20), पर्यायवद् द्रव्याख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यात्, वस्त्वाख्यस्य विशेषणत्वेन गौणत्वात् । अर्थ : पर्यायवाला द्रव्य वस्तु है, इस रूप से दो द्रव्यों का मुख्य और अमुख्य रूप से प्रतिपादन होता है । पर्यायवाला द्रव्य नामक धर्मी विशेष्य होने के कारण प्रधान है । वस्तु नामक धर्मी विशेषण होने से गौण है । वस्तु विशेषण है । वह भी द्रव्य है, पर्याय से विशिष्ट द्रव्य भी द्रव्य है । जब पर्यायों के साथ द्रव्य को विशेष्य रूप से कहते हैं तब वह मुख्य हो जाता है । वस्तु विशेषण रूप से कहा गया है इसलिए वह गौण हो जाता है । जब 'वस्तु कौन सी है ? जो पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य है' इस रूप से विवक्षा होती है तो वस्तु विशेष्य होने के कारण प्रधान हो जाती है और पर्याय से विशिष्ट द्रव्य गौण हो जाता है । यह नैगम दो धर्मियों के विषय में है । क्षणमेकं सुखी विषयासक्त जीव इति पर्यायद्रव्ययोर्मुख्यामुख्यतया विवक्षणम्(21), अत्र विषयासक्तजीवाख्यस्य धर्मिर्णो विशेष्यत्वेन मुख्यत्वात्, सुखलक्षणस्य तु धर्मस्य तद्विशेषणत्वेनामुख्यत्वात् । ___ अर्थ : विषय में आसक्त जीव एक क्षण सुखी होता है, इस रीति से पर्याय और द्रव्य की मुख्य और अमुख्य रूप से विवक्षा होती है । यहाँ विषय में आसक्त जीव नामक धर्मी विशेष्य होने के कारण मुख्य है । सुख रूप धर्म उसका विशेषण होने के कारण अमुख्य है । यहाँ पर जीव द्रव्य है और सुख पर्याय है इसलिए यहाँ पर धर्म और धर्मी को लेकर नैगम है । विशेष्य होने के कारण धर्मी जीव मुख्य है और सुख नामक धर्म विशेषण होने के कारण मुख्य नहीं है । यहाँ पर एक शंका उपस्थित होती है कि, नैगमनय द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रकाशक होने से वह प्रमाण' की कोटी में आ जायेगा । उसको नय कैसे कह सकेंगे । - यह शंका का समाधान देते हुए जैनतर्क भाषा में बताया है कि, न चैवं द्रव्यपर्यायोभयावगाहित्वेन नैगमस्य प्रामाण्यप्रसङ्गः, प्राधान्येन तदुभयावगाहिन एव ज्ञानस्य प्रमाणत्वात् । अर्थ : द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रकाशक होने से नैगम प्रमाण हो जाना चाहिए । इस प्रकार की शंका उत्पन्न होती 20.वस्तु पर्यायवद् द्रव्यमिति धर्मिणोः ।।७-९।। अत्र 'पर्यायवद् द्रव्यं वस्तु च' इति धर्मिद्वयम् । 'पर्यायवद् द्रव्यं वस्तु वर्तते' इति विवक्षायां पर्यायवद् द्रव्याख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेनोपात्तत्वात् प्राधान्यम्, वस्त्वाख्यस्य तु धर्मिणो विशेषणत्वेन गौणत्वम् । अथवा किं वस्तु ? पर्यायवद् द्रव्यमिति विवक्षायां वस्त्वाख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वात् प्राधान्यं, पर्यायवद् द्रव्याख्यस्य तु धर्मिणो विशेषणत्वेन गौणत्वमिति धर्मिद्वयविषयको नैगमस्य द्वितीयो भेदः ।।९।। 21. क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्म-धर्मिणोः ।।१०।। अत्र विषयाऽऽसक्तजीवस्य प्राधान्यं, विशेष्यत्वेनोपात्तत्वात्, सुखरूपस्य धर्मस्य तु अप्राधान्यं, विशेषणत्वेन निर्दिष्टत्वाद् इति धर्मधर्मिद्वयाऽऽलम्बनोऽयं नैगमस्य तृतीयो भेदः ।।१०।। (प्र.न.तत्त्वा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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