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षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट -१, जैनदर्शन का विशेषार्थ इआइ होइ पुच्छा जिणाण मग्गंमि, उत्तरं तइआ । इक्कस्स निगोयस्स, अनंतभागो य सिद्धिगओ ।।१।। अर्थ : जिनेश्वर के मार्ग में शासन में जब जब जिनेश्वर को प्रश्न करे तब तब यही उत्तर होता है कि एक निगोद का भी अनंतवां भाग ही मोक्ष में गया 1
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१. औपशमिक भाव : खाक (भस्म) में ढके हुए अग्नि के समान कर्म की (मोहनीय कर्म की) उपशान्त (अनुदय अवस्था) वह उपशम और उससे उत्पन्न हुआ आत्मपरिणाम वह औपशमिक भाव । २. क्षायिक भाव : जल से बुझ गये अग्नि के समान कर्म का सर्वथा क्षय होना वह क्षय और उससे उत्पन्न हुआ आत्मपरिणाम वह क्षायिक भाव । ३. क्षायोपशमिक भाव : उदय में प्राप्त होते कर्म का क्षय तथा उदय में नहीं प्राप्त हुए (होते) कर्मों का उदय के अभावरूप उपशम वह क्षयोपशम और उससे उत्पन्न हुआ आत्मपरिणाम वह क्षायोपशमिक भाव । ४. औदयिक भाव : कर्म का उदय वह उदय और कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ गति, लेश्या, कषाय आदि जीव परिणाम ( जीव की अवस्थायें) वह औदयिक भाव । ५. पारिणामिक भाव: वस्तु का अनादि स्वभाव (अकृत्रिम स्वभाव अथवा स्वाभाविक स्वरूप) वह पारिणामिक भाव ।
इन ५ भाव में औपशमिक भाव केवल मोहनीय कर्म का ही होता है, क्षायिक भाव आठों कर्म का होता है, क्षयोपशम भाव ज्ञाना० दर्शना० मोह० अन्त०, ये ४ घाती कर्मों का होता है, औदायिक भाव आठों कर्म का (तथा जीव रचित औदारिकादि पुद्गल स्कंधो का भी) होता है और पारिणामिक भाव सर्व द्रव्य का होता है । अब पाँच भावो के प्रकार देखेगें।
(१) औपशमिक भाव : उसके दो भेद हैं । १. सम्यक्त्व और २. चारित्र । (२) क्षायिक भाव : उसके नौ भेद हैं । १. दान लब्धि, २. लाभ लब्धि, ३. भोग लब्धि, ४. उपभोग लब्धि, ५. वीर्य लब्धि, ६. केवलज्ञान, ७. केवलदर्शन, ८. सम्यक्त्व, ९. चारित्र । (३) क्षायोपशमिक भाव : उसके अठारह भेद हैं - १. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनः पर्यवज्ञान, ५. मति- अज्ञान, ६. श्रुतअज्ञान, ७. विभङ्गज्ञान, ८. चक्षुर्दर्शन, ९. अचक्षुर्दर्शन, १०. अवधिदर्शन, ११-१५. दानादि लब्धि ५, १६. सम्यक्त्व, १७. चारित्र, १८. देशविरति (४) औदयिक भाव : उसके २१ भेद हैं (१-४) चार गति, (५-८) चार कषाय, (९-१०-११) ३ लिंग, (१२) मिथ्यात्व, (१३) असंयम, (१४) संसारित्व, (१५-२१) ६ लेश्या, (५) पारिणामिक भाव : उसके तीन भेद हैं (१) जीवत्व, (२) भव्यत्व और (३) अभव्यत्व |
अल्प-बहुत्व अनुयोग : नपुंसक लिंग में सिद्ध थोडे हैं, स्त्री लिंग में सिद्ध और पुरुष लिंग में सिद्ध क्रमशः संख्यात गुण हैं । (71) नपुंसक लिंगवाले जीव एक समय में उत्कृष्ट १० मोक्ष में जाते हैं, इसलिए नपुंसक सिद्ध अल्प, स्त्रीयाँ एक समय में उत्कृष्ट से २० मोक्ष में जाती है, इसलिए द्विगुण होने से स्त्रीलिंग सिद्ध संख्यात गुण कहे हैं और पुरुष एक समय में १०८ मोक्ष में जाते हैं इसलिए स्त्री से भी पुरुष सिद्ध संख्यात गुण जाने । ( द्विगुण से न्यून वह विशेषाधिक और द्विगुण, त्रिगुण इत्यादि उसे संख्यात गुण कहा जाता हैं ।) नपुंसकादि को मोक्ष कहा वह नपुंसकादि वेद आश्रयी नहीं परन्तु नपुंसकादि लिंग आश्रयी मोक्ष जाने, क्योंकि सवेदी को मोक्ष नही हैं ।
तथा यहाँ १० (72) प्रकार के जन्म नपुंसको को चारित्र का ही अभाव होने से मोक्ष में नहीं जा सकते हैं, परन्तु जन्म लेने के बाद कृत्रिम रूप से हुए ६ प्रकार के नपुंसको को चारित्र का लाभ होने से मोक्ष में जाते हैं । इसलिए नपुंसक सिद्ध वह कृत्रिम नपुंसक की अपेक्षा से जाने । इस प्रकार से वेद की अपेक्षा से भी वेद रहित लिंग भेद से अल्प बहुत्व द्वार कहा । परन्तु जिनसिद्धादि भेद में अल्प- बहुत्व इस प्रकार से
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71. थोवा नपुंससिद्धा थीनर सिद्धा कमेण संखगुणा, इअ मुक्खतत्तमेअं, नवतत्ता लेसओ भणिया ।। ५० ।। ( नव.प्र.)
72. १० प्रकार के जन्म नपुंसको का स्वरूप श्रीधर्मबिंदु वृत्ति आदिक ग्रंथो से जानना ।
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