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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४३३/१०५६ जैसे एक परमाणु जो एक आकाशप्रदेश में समा रहा है उसे १ आकाश प्रदेश की अवगाहना कही जाती हैं और उस परमाणु को चारो दिशा से ४ तथा ऊर्ध्व और अधः एक-एक आकाश प्रदेश मिलकर स्पर्श किये हुए ६ प्रदेश और पूर्वोक्त अवगाहना का १ मिलकर ७ आकाशप्रदेश की स्पर्शना कही जाती हैं। वैसे प्रत्येक सिद्ध को अवगाहना क्षेत्र से स्पर्शना क्षेत्र अधिक होता है । वह केवल सिद्ध को ही नहीं परन्तु परमाणु आदि प्रत्येक द्रव्य मात्र की स्पर्शना अधिक ही होती हैं। यह क्षेत्र स्पर्शना ( आकाश प्रदेश अपेक्षा से स्पर्शना) कही, अब सिद्ध को सिद्ध की परस्पर स्पर्शना भी अधिक हैं, यह इस प्रकार से एक विवक्षित सिद्ध जो आकाशप्रदेशों में अवगाहन करके रहा हुआ है, वह प्रत्येक आकाशप्रदेश में एक-एक प्रदेश हा वृद्धि से अनन्त अनन्त दूसरे सिद्ध जीव भी उस सिद्ध के आत्मप्रदेश हिनाधिक स्पर्श करके अवगाहन किये हैं, उसे विषमावगाही सिद्ध कहा जाता है । तदुपरांत उस सिद्ध की अवगाहना में वह और उतने ही आकाश प्रदेशो में संपूर्ण अन्नातिरिक्त रुप से (हीनाधिकता रहित) दूसरे अनन्त सिद्ध जीव (उस सिद्ध को) संपूर्ण स्पर्श करके ( प्रवेश करके) अवगाहन किये हैं । वह तुल्य अवगाहनावाले सिद्ध समावगाही कहे जाते हैं । उस विवक्षित सिद्ध क समावगाही सिद्ध की स्पर्शना अनन्त गुणी हैं और विषमावगाही सिद्धो की स्पर्शना उससे भी असंख्यात गुणी हैं, क्योंकि अवगाहना प्रदेश असंख्यात है । इस प्रकार से परस्पर स्पर्शना अधिक ( अर्थात् अनन्त गुण) है । इस तरह से दोनों प्रकार की स्पर्शना अधिक कही । अब कालद्वार - एक सिद्ध आश्रयी सोचने से वह जीव अथवा सिद्ध अमुक समय पर मोक्ष में गये हुए हैं । इसलिए सादि (आदि सहित) और सिद्धपन का अंत नहीं हैं, इसलिए अनन्त । इस प्रकार से एक जीव आश्रयी सादि अनन्त काल जाने, तथा सर्व सिद्ध आश्रयी सोचने से पहला कौन सिद्ध हुआ उसकी आदि नहीं हैं, तदुपरांत जगत में सिद्ध का अभाव कब होगा, वह भी नहीं है। इसलिए सर्व सिद्ध आश्रयी अनादि अनन्त काल जाने । तथा सिद्ध को गिरने का अभाव हैं अर्थात् पुनः संसार में आना नहीं हैं, इसलिए (पहला सिद्धत्व उसके बाद बीच में संसारीत्व, उसके बाद पुनः सिद्धत्व इस प्रकार के संसार के) अंतरवाला सिद्धत्व नहीं होता हैं । यहाँ बीच में दूसरा भाव पाना वह अंतर कहा जाता है, ऐसा अन्तर काल अन्तर सिद्ध को नही हैं अथवा जहाँ एक सिद्ध रहा हुआ है, वही पूर्वोक्त रुप से समावगाहना से तथा विषमावगाहना से स्पर्शनाद्वार कहे अनुसार अनन्त अनन्त सिद्ध रहे हुए हैं, इसलिए सिद्धो को एक-दूसरे के बीच अंतर ( खाली जगह) नहीं है । इस प्रकार से क्षेत्र आश्रयी परस्पर अंतर (क्षेत्र अंतर) भी नहीं है। यह अन्तर द्वार कहा । ( नवतत्त्व भाष्य की वृत्ति में सिद्ध जीवो के आत्म प्रदेश घन होने से अन्तर छिद्र नहीं हैं, ऐसा कहा है ।) - यहाँ अन्य दर्शनकार कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्त का उद्धार करने के लिए पापीओं का शासन करने के लिए अनेक बार अवतार धारण करते हैं, वह इस द्वार से सर्वथा असत्य और अज्ञानमूलक हैं, ऐसा जानना । (७-८) भाग और भाव अनुयोग द्वार : वे (सिद्ध) सर्व जीवो के अनन्तवें भाग में है । उनका ज्ञान और दर्शन क्षायिक भाव से है और जीवत्व पारिणामिक भाव से है । (70) सिद्ध जीव यद्यपि अभव्य से अनन्त गुण हैं, तो भी सर्व संसारी जीवो के अनन्तवें भाग जितने ही है, इतना ही नहीं, परन्तु निगोद के जो असंख्य गोले और एक-एक गोले में असंख्य निगोद और एक-एक निगोद में जो अनन्त अनन्त जीव है, ऐसी एक ही निगोद के भी अनंतवें भाग जितने तीनों काल के सर्व सिद्ध है । कहा हैं कि - 70. सव्वजियाणमणंते भागे ते तेसिं दंसणं नाणं । खइए भावे, परिणामिए अ पुण होइ जीवत्तं ।। ४९ । । ( नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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