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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ ४२७/१०५० सकता, शुरू नहीं कर सकता और पालन नहीं कर सकता । इस कर्म से दर्शन और अनंत चारित्रगुण रुक जाते हैं । (५) आयुष्य कर्म का स्वभाव जीव को कुछ खास गति में कुछ खास काल तक रोककर रखने का हैं, इसलिए यह कर्म जंजीर के समान है। जैसे जंजीर में पडा हुआ मनुष्य राजाने नियत की हुई मुदत तक केदखाने में से बाहर नहीं निकल सकता, वैसे तत् तत् गति संबंधित आयुष्य कर्म के उदय से जीव तत् तत् गति में से निकल नहीं सकता हैं । इस कर्म से जीव अक्षयस्थिति गुण रुक जाता है । (६) नामकर्म का स्वभाव चित्रकार के समान है । निपुण चित्रकार जैसे अनेक रंगो से अंग- उपांग युक्त देव, मनुष्य आदि के अनेक रूपो का चित्र बनाता हैं, वैसे चित्रकार के समान नामकर्म भी अनेक वर्णवाले अंग- उपांग युक्त देव, मनुष्य आदि अनेक रुप बनाता हैं । इस कर्म का स्वभाव जीव के अरुपी गुण को रोकने का हैं । (७) गोत्रकर्म : कुम्भकार के समान है । जैसे कुम्हार कुंभ स्थापना इत्यादि के लिए उत्तम घडे बनाये, तो मांगलिक के रुप में पूजे जाते है और मदिरादिक के घडे बनाये तो निंदनीय होते है । वैसे जीव भी उच्च गोत्र में जन्म ले तो पूजनीक और नीच गोत्र में जन्म ले तो निंदनीक होता है । इस कर्म का स्वभाव जीव के अगुरुलघु गुण को रोकने का हैं । (८) अन्तराय कर्म: खजानची के समान हैं। जैसे राजा दान देने के स्वभाववाला (दाता) हो परन्तु राज्य की तिजौरी का व्यवहार करनेवाला खजानची यदि प्रतिकूल हो तो कुछ कुछ खास प्रकार का राज्य को घाटा है, इत्यादि बारबार समजाने से राजा अपनी इच्छा अनुसार दान नहीं दे सकता, वैसे जीव का स्वभाव तो अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धिवाला है, परन्तु इस अन्तराय कर्म के उदय से जीव के वे अनंत दानादि स्वभाव सार्थक प्रकट नहीं हो सकते हैं । कर्म की आठ प्रकृतियाँ और इसकी उतरप्रकृतियाँ का तथा जैनदर्शन के कर्मविषयक तत्त्व का विशेष प्रतिपादन "जैनदर्शन का कर्मवाद" चेप्टर में आगे आयेगा । ९. मोक्षतत्त्व और उसका स्वरूप : (60) १. मोक्ष अथवा सिद्ध सत् विद्यमान हैं या नहीं ? उसके संबंधी प्ररूपणा प्रतिपादन करना, वह सत्पद प्ररूपणा और जो हैं, तो गति आदि १४ मार्गणा में से कौन-कौन सी मार्गणा में वह मोक्षपद हैं, उसके संबंधी प्ररूपणा करना वह भी सत्पद प्ररूपणाद्वार । २. सिद्ध के जीव कितने हैं ? उसकी संख्या संबंधी विचार करना वह द्रव्य प्रमाणद्वार । ३. सिद्ध - जीवो का कितने क्षेत्र में अवगाहन हैं, रहते हैं, वह निश्चित करना, वह क्षेत्रद्वार । ४ सिद्ध के जीव कितने आकाश प्रदेश को तथा सिद्ध को स्पर्श करते हैं ? अर्थात् क्षेत्र से और परस्पर ऐसे दो प्रकार से कितनी स्पर्शना हैं ? उसका विचार कहना वह २ प्रकार का स्पर्शना द्वार हैं । ५. सिद्धत्व कितने काल तक रहता हैं ? उसका विचार करना यह कालद्वार । ६. सिद्ध को अंतर हैं या नहीं ? अर्थात् सिद्ध कोई वक्त संसारी होकर पुनः सिद्ध हो, ऐसा बनता है या ? उसके संबंधित विचार करना वह कालअन्तर द्वार । तथा परस्पर अन्तर हैं या नहीं, वह परस्पर अन्तर द्वार ये दो प्रकार का अन्तर द्वार हैं । ७. सिद्ध के जीव संसारी जीवो से कितने भाग में हैं, यह सोचना वह भागद्वार । ८. उपशम आदि ५ भाव में सिद्ध कौन-से भाव से माने जाते हैं ? वह सोचना वह भावद्वार । ९. सिद्ध के १५ भेद में से कौन से भेदवाले सिद्ध होने से एक दूसरे से कितने कम ज्यादा हैं ? उसके संबंधि विचार करना वह अल्पबहुत्व द्वार जैन शास्त्रो में पदार्थों की विचारणा के लिए जिज्ञासुओं की शंकाओ के जवाब के रूप में भिन्न भिन्न मार्ग बताये होते हैं। उसे अनुयोग कहते हैं । ऐसे अनुयोग बहोत प्रकार के होते हैं । उसमें से यहाँ बताये हुए ९ अनुयोग विशेष प्रचार में हैं और सामान्य रुप से प्रत्येक पदार्थों का उस अनुयोगों से विचार चलाया जा सकता हैं । नवतत्त्व की विचारणा के समय खास करके मोक्षतत्त्व का स्वरूप ये नौ अनुयोगो द्वारा समजाया है । इसलिए उसे उसके भेद कहे हैं । वस्तुतः ये ९ वें तत्त्व के ही ९ भेद नही है । प्रत्येक को लागू पडते हैं । अब क्रमशः उपर बताये हुए द्वारो की विचारणा करेंगे । 60. संतपय परूवणया, दव्वप्रमाणं च खित्त फुसणा य । कालो अ अंतरं भाग भावे अप्पाबहुं चेव ||४३|| ( नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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