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________________ ४२६/१०४९ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- १, जैनदर्शन का विशेषार्थ का हरण करता है, जीरे आदिक का मोदक पित्त का हरण करता है और कफापहारी द्रव्य का मोदक कफ हरता है, वैसे कोई कर्म ज्ञान-गुण का आवरण करता है, कोई कर्म दर्शनगुण का आवरण करता है, इत्यादि तरह से बंधकाल में एक समय में अलग-अलग स्वभाव नियत होना वह प्रकृतिबन्ध कहा जाता हैं । यहाँ प्रकृति अर्थात् स्वभाव, ऐसा अर्थ हैं । (२) स्थितिबन्ध : जिस समय कर्म बंधता है, उसी समय कोई भी कर्म बंधने से " यह कर्म इतने काल तक आत्म प्रदेशों के साथ रहेगा " ऐसा समय निश्चित होना वह स्थिति बंध कहा जाता हैं । जैसे कोई मोदक १ महीने तक रहता है, कोई मोदक १५ दिन तक रहता है और उसके बाद वह बिगड जाता है, वैसे कोई कर्म उत्कृष्ट से ७० कोडाकोडी सागरोपम तक और कोई कर्म ५० कोडाकोडी सागरोपम तक जीव के साथ स्वस्वरूप में रहता है, उसके बाद उस कर्म के स्वरूप का विनाश होता है, वह स्थितिबंध | (३) अनुभाग बंध : जिस समय जो कर्म बंधता है, उस कर्म का फल जीव को आह्लादकारक शुभ या दुःखदायी अशुभ प्राप्त होगा ? वह शुभाशुभता भी उसी समय नियत होती है, वैसे वह कर्म जब शुभाशुभरूप से उदय में आये, तब तीव्र, मंद या मंदतर उदय में आयेगा ? वह तीव्रमंदता भी उसी समय नियत होती है, इसलिए शुभाशुभता और तीमंदता का जो नियतत्व बंध के समय होना वह अनुभाग बंध अथवा रसबंध कहा जाता है । जैसे कोई मोदक अल्प या अति मधुर हो, अथवा अल्प या अति कटुआ हो, वैसे कर्म में भी कोई कर्म शुभ हो और कोई कर्म अशुभ हो, उसमें भी कोई कर्म तीव्र अनुभव दे, कोई कर्म मंद अनुभव दे ऐसा बंधता है । वैसे ही कर्म के उदय फल के विषय में तीव्रमंदता का विचार करे । - (४) प्रदेश बंध : जैसे मोदको में कोई मोदक ०। शेर कनिक का (आटे का), कोई मोदक उससे ज्यादा कणिक का होता है, वैसे बंध के समय कोई कर्म के ज्यादा प्रदेश और कोई कर्म के अल्प प्रदेश बंधते है । परन्तु प्रत्येक कर्म के प्रदेशो की समान संख्या नहीं बंधती हैं, वह इस अनुसार से आयुष्य के सब से अल्प, नाम-गोत्र के उससे विशेष, परन्तु परस्पर तुल्य, ज्ञान-दर्शन-अन्तराय के उससे भी विशेष और परस्पर तुल्य । मोहनीय के उससे भी विशेष और वेदनीय के सब से विशेष प्रदेश बंधते है, उसे प्रदेशबंध जानना । - - कर्म के स्वभाव (59) : पूर्व में कर्मबन्ध के चार प्रकार का स्वरूप देखा, अब कर्म के स्वभाव बताते हैं (१) ज्ञानावरणीय : यह कर्म का स्वभाव जीव के ज्ञानगुण को ढकने का है और वह ज्ञानावरणीय कर्म चक्षु की पट्टी के समान है अर्थात् चक्षु (आँख) पर पट्टी बाँधने से जैसे कोई वस्तु देखी जानी नहीं जा सकती वैसे ज्ञानावरणीय कर्मरूप पट्टी से ज्ञानरूप चक्षु द्वारा कुछ जाना नहीं जा सकता है । इस कर्म से जीव का अनन्त ज्ञानगुण आच्छादित होता हैं । (२) दर्शनावरणीय : यह कर्म का स्वभाव जीव के दर्शनगुण को ढक देता है । जैसे द्वारपाल द्वारा रोके गये मनुष्यो को राजा नहीं देख सकता, वैसे जीवरूपी राजा दर्शनावरण कर्म के उदय से पदार्थ और विषय को नहीं देख सकता है । इस कर्म से जीव का अनन्त दर्शनगुण आच्छादित होता है । (३) वेदनीय कर्म का स्वभाव जीव को सुख दुःख देने का है । जैसे शहद (मधु) द्वारा लेपायमान तलवार को चाटने से प्रथम मीठापन लगता है, परन्तु जुबान कटने से बाद में दुःख भुगतना पडता है, वैसे यहाँ शाता वेदनीय का अनुभव करने के परिणाम स्वरूप अतिशय अशातावेदनीय का भी अनुभव करना पडता हैं । यह कर्म जीव के अव्याबाध अनन्त सुख गुण को रोकता हैं । (४) मोहनीय कर्म : का स्वभाव जीव के सम्यक्त्व गुण तथा अनन्त चारित्र गुण को रोकने का हैं, यह मोहनीय कर्म मदिरा के समान हैं, जैसे मदिरा पीने से जीव बेहोश होता हैं, हित-अहित जानता नहीं है, वैसे मोहनीय के उदय से भी जीव धर्म-अधर्म कुछ भी जान नहीं 59. पडपडिहार सिमज्ज हडचित्तकुलालभंडगारीणं जह एएसिं भावा, कम्माणऽवि जाण तह भावा ।। ३८ ।। ( नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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