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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१. जैनदर्शन का विशेषार्थ ४१७/ १०४० छोडकर घर घर जाकर भिक्षा माँगना, उसे याचना परिषह जीता, कहा जाता है । १५. अलाभ परिषह :(41) मान और लज्जा छोडकर घर घर भिक्षा माँगने पर भी वस्तु न मिले तो “लाभान्तराय कर्म का उदय है अथवा सहज तपवृद्धि होती है" ऐसा समझकर उद्वेग न करना, वह अलाभ परिषह । १६. रोगपरिषह : ज्वर (बुखार), अतिसार (दस्त) आदि रोग प्रगट होते जिनकल्पी आदि कल्पवाले मुनि उस रोग की चिकित्सा न कराये, परन्तु अपने कर्म के विपाक का चिंतन करे और स्थविरकल्पी (गच्छवासी) मुनि हो, वह आगम में कही हुई विधि अनुसार निरवद्य (निर्दोष) चिकित्सा करायें और उससे रोग शान्त हो अथवा न हो, तो भी हर्ष-उद्वेग न करे, परन्तु पूर्व कर्म का विपाक (उदय) चिंतन करे, उसे रोग परिषह जीता, माना जाता हैं । १७. तृणस्पर्श परिषह : गच्छ से निकले हुए जिनकल्पी आदि कल्पधारी मुनि को तृण का (दर्भ आदि घास का २।। (ढाई) हाथ प्रमाण) संथारा होता हैं, इसलिए उस तृण की नोंक शरीर में लगे तो भी वस्त्र की इच्छा न करे तथा गच्छवासी (स्थविरकल्पी) मुनि को भी वस्त्र का भी संथारा होता है, वह भी प्रतिकूल प्राप्त हआ हो, तो दीनता धारण न करे, वह तुणस्पर्श परिषह हैं । १८. मल परिषह : साधु को शंगार - विषय के कारणरूप जल स्नान नहीं होता, इसलिए पसीने इत्यादि से शरीर पर मैल बहोत लगा हो और दुर्गंध आती हो, तो भी शरीर की दुर्गधि टालने के लिए जल से स्नान करने का चितवन भी न करें. उसे मल परिषह जीता. माना जाता हैं । १९. सत्कार परिषह : साध अपना बहोत मान सत्कार लोक में होता देखकर मन में हर्ष न पाये और सत्कार न होने से उद्वेग न करे, उसे सत्कार परिषह जीता, कहा जाता हैं। २०. प्रज्ञा परिषह : स्वयं बहुश्रुत (अधिक ज्ञानी) होने से अनेक लोगो को प्रश्नो के उत्तर देकर संतुष्ट करे और अनेक लोग उस बहुश्रुत की बुद्धि की प्रशंसा करे, उससे वह बहुश्रुत अपनी बुद्धि का गर्व धारण करके हर्ष न करे, परन्तु ऐसा जाने कि “पहले मुज से भी अनंतगुण बुद्धिवाले ज्ञानी हुए है, मैं कौन मात्र हुँ ?" इत्यादि चिंतन करे, उसे प्रज्ञा परिषह जीता, कहा जाता हैं । २१. अज्ञान परिषह : साधु अपनी अल्पबुद्धि होने से आगम इत्यादि के तत्त्व न जाने, तो अपनी अज्ञानता का संयम में उद्वेग उपजे ऐसा खेद न करे, “मैं ऐसी उग्र तपश्चर्यादि संयमवाला हुँ ।" तो भी आगमतत्त्व जानता नहीं हुँ, बहुश्रुतपन प्राप्त नहीं होता है ।" इत्यादि खेद-उद्वेग धारण न करते हुए मतिज्ञानावरणीय का उदय सोचकर संयम भाव में लीन हो, उसे अज्ञान परिषह जीता, माना गया हैं । २२. सम्यक्त्व परिषह : अनेक कष्ट और उपसर्ग प्राप्त होने पर भी सर्वज्ञ भाषित धर्म की श्रद्धा से चलायमान न होना, शास्त्रो के सूक्ष्म अर्थ न समझ में आये तो व्यामोह न करना, परदर्शन में चमत्कार देखकर मोहित न होना, इत्यादि सम्यक्त्व परिषह कहा जाता हैं। दस यतिधर्म :(42) (१) खंति (क्षान्ति) : अर्थात् क्रोध का अभाव, वह पहला क्षमा धर्म, वह पाँच प्रकार से हैं, वहाँ किसीने अपना नुकसान किया होने पर भी “वह किसी समय पर उपकारी हैं" ऐसा जानकर सहनशीलता रखना वह उपकार क्षमा ।" यदि मैं क्रोध करूँगा, तो यह मेरा नुकसान करेगा “ऐसा सोचकर क्षमा करना वह अपकार क्षमा", "यदि क्रोध करूँगा तो कर्मबंध होगा" ऐसा सोचकर क्षमा रखना वह विपाक क्षमा ।" "शास्त्र में क्षमा रखना कहा है, इसलिए क्षमा रखे" वह वचन क्षमा (अथवा प्रवचन क्षमा) और "आत्मा का धर्म क्षमा ही है" ऐसा सोचकर क्षमा रखना वह धर्म क्षमा - ये पाँचो क्षमा यथायोग्य आचरणीय है, परन्तु क्रोध करना युक्त नहीं है । उसमें सर्वोत्कृष्ट क्षमा धर्मक्षमा हैं । (२) मार्दव : नम्रता, निरभिमानत्व, (३) आर्जव : सरलता - निष्कपटत्व, (४) मुक्तिः निर्लोभीत्व, (५) तप : इच्छा का रोध करना वह तप, यहाँ संवर तत्त्व में कहा, आगे निर्जरा तत्त्व में भी कहा जायेगा, इसलिए तप से संवर और निर्जरा दोनों होती हैं, ऐसा जानना । क्योंकि सम्यक् निर्जरा में संवर धर्म 41.अलाभ रोग तणफासा, मल सक्कार परीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं, इअ बावीस परीसहा ।।२८।। (नव.प्र.) 42.खंती मद्दव अज्जव, मुत्ती तव संजमे अ बोधव्वे । सच्चं सोअं आकिंचणं च बंभं जइधम्मो ।।२९।। (नव.प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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