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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ पिपासा-परिषह । ३. शीत परिषह : अतिशय ठंड पड़ने से अंगोपांग जकड जाति हो तो भी साधु को न हो ऐसे वस्त्र की इच्छा अथवा अग्नि में शेकने की इच्छा मात्र भी न करे, वह शीत परिषह । ४. उष्ण परिषह : गर्मी की ऋतु में गरम शीला अथवा रेत पर चलते हो अथवा धूप सखत्त पडती हो तो उस समय भी मरणान्त कष्ट आये तो भी छत्र की छाया अथवा वस्त्र की छाया अथवा पंखे का वायु या स्नान-विलेपन आदिक की इच्छा मात्र भी न करे, वह उष्ण परिषह। ५. दंश परिषह : वर्षा काल में डाँस-मच्छर-जुआ-खटमल इत्यादि क्षद्र जंत बहोत उत्पन्न होते हैं, वे जंत-बाण के प्रहार जैसे दंश मारे (काटे) तो भी वहाँ से खिसककर अन्य स्थान पर जाने की इच्छा न करे, उनको धूम्र आदि प्रयोग से बाहर न निकाले और उन जीवो के उपर द्वेष का भी विचार न करे, परन्तु अपनी धर्म की दृढता बढाने में निमित्तभूत माने, उसे दंश परिषह जीता, कहा जाता हैं । ६. अचेल परिषह : वस्त्र सर्वथा न मिले अथवा जीर्णप्रायः मिले, तो भी दीनता का विचार न करे, उपरांत उत्तम बहु मूल्यवान वस्त्र न चाहे, परन्तु अल्प मूल्यवाला जीर्ण वस्त्र धारण करे, वह अचेल परिषह। यहाँ अचेल अर्थात् वस्त्र का सर्वथा अभाव अथवा जीर्ण वस्त्र ऐसे दो अर्थ हैं। जीर्ण वस्त्र धारण करना, वह भी परिग्रह हैं, ऐसा कहनेवाला असत्यवादी हैं, क्योंकि संयम के निर्वाह के लिए ही जीर्णप्रायः वस्त्र ममत्व रहित धारण करने से परिग्रह नहीं कहा जाता, यही श्री जिनेन्द्रवचन का रहस्य है । ७. अरति परिषह : अरति अर्थात उद्वेगभाव । साध को संयम में विचरते समय जब अरति के कारण बने, तब सिद्धांत में कहे हुए धर्मस्थान की भावना करे, परन्तु धर्म के प्रति उद्वेगभाव न करे, क्योंकि धर्मानुष्ठान वह इन्द्रियो के संतोष के लिए नहीं हैं, परन्तु इन्द्रियो के और आत्मा के दमन के लिए है, इसलिए उद्वेग न पाये, वह अरति परिषह का जय किया कहा जाता हैं । ८. स्त्री परिषह : स्त्रीयो को संयम मार्ग में विघ्नकर्ता जानकर उनको सराग दृष्टि से न देखना और स्त्री स्वयं विषयार्थ निमंत्रणा करे तो भी स्त्री के आधीन न होना, वह स्त्री परिषह का विजय कहा जाता है, उसी तरह से साध्वी को पुरुष परिषह इसमें अंतर्गत समझना । ९. चर्या परिषह : चर्या अर्थात् चलना, विहार करना अर्थात् मुनि एक स्थान पर अधिक काल न रहे परन्तु मासकल्प की मर्यादा अनुसार (८ शेषकाल के और १ वर्षाकाल के चार मास का इस तरह से) नवकल्पी विहार करे, परन्तु उसमें प्रमाद न करे, उसे चर्या परिषह का विजय कहा जाता हैं । १०. नैषेधिकी परिषह : शून्य गृह, स्मशान, सर्प बिल, सिंह गुफा इत्यादि स्थानो में रहना और वहाँ प्राप्त होते उपसर्गो से चलायमान न होना अथवा स्त्री, पशु, नपुंसक आदि रहित और संयम के निर्वाह योग्य स्थान में रहना, वह नैषेधिकी परिषह हैं । पाप अथवा गमनागमन का निषेध जिसमें है, वह नषेधि की अर्थात् स्थान कहा जाता है । इसका दूसरा नाम निषद्य परिषह अथवा स्थान परिषह भी कहा जाता है । ११. शय्या परिषह : ऊँची-नीची इत्यादि प्रतिकूल शय्या मिलने से उद्वेग न करे और अनुकूल शय्या मिलने से हर्ष न करे, वह शय्या परिषह । १२. आक्रोश परिषह : मुनि का कोई अज्ञानी मनुष्य तिरस्कार करे तो मुनि तिरस्कार करनेवाले के प्रति द्वेष न करे, परन्तु उनको उपकारी माने, वह आक्रोश परिषह जीता माना जाता है । १३. वध परिषह : साधु को कोई अज्ञानी पुरुष, दंड, चाबुक, आदिक से जोरदार प्रहार करे अथवा वध भी करे, तो भी स्कंधकसूरि के तेल की चक्की में पीसते ५०० शिष्यो की तरह वध करनेवाले के उपर द्वेष न करते हुए, उल्टा मोक्षमार्ग में महा उपकारी है, ऐसा माने और ऐसी भावना करे कि "कोई जीव मझे (मेरे आत्मा को) मार नहीं सकता हैं. पदगलरूप शरीर को मारता है और वह शरीर तो मुझ से भिन्न है, शरीर ये मैं नहीं और मैं वह शरीर नहीं तथा मुजे यह पुरुष जो दुःख देता है, वह भी पूर्व (पहले) बाँधे हुए कर्म का उदय है, यदि ऐसा न हो, तो यह पुरुष, मुझे छोडकर दूसरे को क्यों नहीं मारता है ? यह मारनेवाला तो केवल निमित्तमात्र हैं, सञ्चा कारण तो मेरे पूर्वभव के कर्म ही है ।" इत्यादि शुभ भावना करे तो वधपरिषह जीता, कहा जाता है । १४. याचना परिषह : साधु कोई भी वस्तु (तृण, मिट्टी इत्यादि भी) मांगे बिना ग्रहण न करे, ऐसा उनका धर्म है। इसलिए मैं राजा हुँ, धनाढ्य हुँ, तो मुज से दूसरे के पास कैसे माँगा जायेगा ? इत्यादि मान और लज्जा
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