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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
३९९/१०२२ भाषा, उच्छ्वास, मन इत्यादि पुद्गलो का ग्रहण, विसर्जन तथा काययोग आदि चलक्रियायें धर्मास्तिकाय के बिना नहीं होती है अर्थात् सर्व चलक्रियायें धर्मास्तिकाय का उपकार हैं और बैठने में, खडे रहने में, चित्त की स्थिरता में इत्यादि प्रत्येक स्थिर क्रियाओं में अधर्मास्तिकाय का उपकार हैं । तथा लोक और अलोक में भी सर्वत्र व्याप्त, वर्ण-गंध-रस-स्पर्श शब्द रहित, अरूपी, अनन्त प्रदेशी और कठिन गोले समान आकारवाला इस जगत में आकाशास्तिकाय नामका भी पदार्थ हैं, इस आकाश द्रव्य का गुण धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गलो को अवकाश-जगह देने का हैं । एक स्थान पे स्थिर रहनेवाले को और अन्य स्थान पर गमन करनेवाले को भी यह द्रव्य अवकाश देता है । इस द्रव्य के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं, यहाँ जितने आकाश में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दो द्रव्य व्याप्त हुए हो उतने आकाश का नाम लोकाकाश है । वह वैशाख संस्थान में संस्थित (अर्थात् कमर पे दो हाथ रखकर और दो पग फैला कर खडे हुए) पुरुषाकार समान हैं और शेष रहा हुआ आकाश वह अलोकाकाश खाली गोले समान
हैं। अलोक में केवल एक आकाश द्रव्य ही है और लोकाकाश में सर्व द्रव्य हैं, लोकाकाश में धर्मा० और अधर्मा० होने से जीव और पुद्गल आसानी से गमनागमन करते है, परन्तु अलोक में तो इन्द्र समान समर्थ देव भी अपने
[ मात्र भी प्रवेश नहीं करा सकते हैं. उसका कारण यही कि धर्मा० अधर्मा० लोक के अग्रभाग में जाकर रुक जाते हैं। (उपरांत, धर्मास्ति० - अधर्मा० - लोकाकाश और १ जीव, चार के असंख्य असंख्य प्रदेश हैं, वे तुल्य संख्यावाले हैं, किसी में १ प्रदेश भी हीनाधिक नहीं हैं ।)
तथा प्रतिसमय पूरण (मिलना) - गलन (बिखर जाना) स्वभाववाला पदार्थ वह पुद्गल कहा जाता हैं । क्योंकि, यदि स्कंध(13) हो तो उसमें प्रतिसमय नये परमाणु आने से पूरण धर्मवाला और प्रति समय पूर्वबद्ध परमाणु बिखर जाने से गलन धर्मवाला हैं । कदाचित् कोई स्कंध में अमुक काल तक ऐसा न हो तो भी प्रति समय विवक्षित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के २० भेद में से कोई भी एक नये भेद का पूरण होना और पूर्व भेद का बिखर जाना तो अवश्य होता ही है । इसलिए वह पुद्गल कहा जाता हैं । वह पुद्गल वास्तविक रूप से तो परमाणु रूप है, परन्तु उसके विकार रूप से संख्यप्रदेशी असंख्यप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कंध भी बनते है, इसलिए स्कंध विभाव धर्मवाले और परमाणु स्वाभाविक है, वे प्रत्येक भेदवाले अनन्त स्कंध प्रायः जगत में सदाकाल विद्यमान हैं और परमाणु भी अनन्त विद्यमान है। ___ तथा काल वह वर्तमान एक समयरूप हैं और वह निश्चय से वर्तना लक्षणवाला हैं तथा व्यवहार से भूत-भविष्य रूप भेदवाला भी हैं । उसका विशेष स्वरूप आगे कहा जायेगा ।
६ द्रव्यो में द्रव्यादि ६ मार्गणा :- (१) धर्मास्तिकाय द्रव्य, द्रव्य से (संख्या से) १ हैं, क्षेत्र से समग्र लोकाकाश प्रमाण हैं, काल से अनादि अनन्त हैं, भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द रहित अरुपी हैं और गुण से गतिसहायक गुणवाला हैं और संस्थान से लोकाकृति तुल्य हैं । (२) इस प्रकार अधर्मास्तिकाय द्रव्य भी जानना, परन्तु गुण से स्थिति सहायक गुणवाला हैं । (३) आकाशास्तिकाय :- द्रव्य से १ हैं, क्षेत्र से लोकालोक प्रमाण है, काल से अनादि अनन्त हैं, भाव से वर्णादि रहित अरुपी हैं, गुण से अवकाशदान गुणवाला हैं और संस्थान से घन गोले जैसी आकृतिवाला हैं । (४) पुद्गल और पुद्गलस्तिकाय द्रव्य से अनन्त हैं, क्षेत्र से समग्र लोक प्रमाण हैं । काल से अनादि अनन्त हैं, भाव से वर्ण, गंध, रस स्पर्श और शब्द सहित रूपी हैं, गुण से पूरण-गलन स्वभाववाला (विविध परिणामोवाला) और संस्थान से परिमंडलादि(14) पाँच आकृतिवाला हैं। (५) जीवास्तिकाय : द्रव्य से अनन्त, क्षेत्र से समग्र लोक प्रमाण, काल से 13.स्कन्दन्ते - शुष्यन्ति पुद्गलविचटनेन, धीयन्ते-पुद्गलचटनेनेति स्कन्धा:- अर्थात् स्कन्ध शब्द में स्कं और ध ये दो अक्षर - पद हैं, उसमें स्कं अर्थात् स्कन्दन्ते अर्थात् पुद्गलो के बिखर जाने से सूख जाये और ध अर्थात् धीयन्ते अर्थात् पुद्गलो के मिलने से पुष्ट हो, वह स्कन्ध शब्द की नियुक्ति हैं 114. चूडी जैसा गोल, थाली जैसा गोल, तीन कोनेवाला, चार कोनेवाला लम्बा ।
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