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________________ ३९८/१०२१ षड्, समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ प्रश्नः- धर्मास्तिकायादि द्रव्य में परमाणु रूप चौथा भेद क्यों नहीं हैं ? उत्तर:- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन चार द्रव्य के यथासंभव असंख्य और अनंत प्रदेशवाले स्कंध में से एक भी प्रदेश किसी भी काल में अलग नहीं पडा । अलग नहीं पड़ता है और पडेगा भी नहीं, ऐसे शाश्वत संबंधवाले चार स्कंध होने से ये चार द्रव्य में परमाणुरूप चौथा भेद नहीं है । परन्तु पुद्गल द्रव्य के तो अनन्त परमाणु जगत में अलग पडे हुए हैं और पडते हैं, इसलिए पुद्गल में परमाणु रूप चौथा भेद होता हैं । प्रश्न:- यदि इस प्रकार चार द्रव्यो के स्कंधो में से एक प्रदेश जितना विभाग भी अलग नहीं पड सकता हैं, तो केवल स्कंधरूप एक ही भेद कहना योग्य हैं, परन्तु स्कंध, देश और प्रदेशरूप तीन भेद किस तरह से होंगे ? उत्तर:- ये चार स्कंधो में पुद्गल परमाणु जितने असंख्य और अनन्त सूक्ष्म अंशो का अस्तित्व समजने (उस अखंड पिंडो के क्षेत्रविभाग को बताने) के लिए ये ३ भेद अति उपयोगी हैं, देश-प्रदेश की कल्पना तो स्कंध में स्वाभाविक हैं, इसलिए शाश्वत संबंधवाले पिंड में ये ३ भेद ठीक तरह से समजे जा सकता हैं । प्रश्न:- प्रदेश बडा या परमाणु बडा ? उत्तर:- प्रदेश और परमाणु दोनों एक समान कद के ही होते हैं । कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है परन्तु स्कंध के साथ प्रतिबद्ध होने से प्रदेश कहा जाता हैं और अलग होने से परमाणु कहा जाता है, इतना ही अंतर है। छोटे से छोटा देशप्रदेश, परम-छोटे से छोटा अणु-परमाणु । पाँच अजीव और उसके स्वभाव :(12) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल ये पाँच अजीव है । चलने में - गति करने में सहाय देने के स्वभाववाला धर्मास्तिकाय है और स्थिर रहने में सहाय देने के स्वभाववाला अधर्मास्तिकाय हैं, पुद्गलो को तथा जीवो को अवकाश-जगह देने के स्वभाववाला आकाशास्तिकाय है । स्कंध-देश-प्रदेश और परमाणु ये चार प्रकार से ही पुद्गलो को जाने । जैसे मत्स्य को जल में तैरने की शक्ति अपनी हैं, तो भी तैरने की क्रिया में उपकारी कारण (अपेक्षा कारण) जल हैं अथवा चक्षु को देखने की शक्ति हैं, परन्तु प्रकाशरूप सहकारी कारण बिना नहीं देख सकता अथवा पक्षी को उडने की शक्ति अपनी हैं, तो भी हवाके बिना नहीं उड सकता वैसे जीव और पुद्गल में गति करने का स्वभाव हैं, परन्तु धर्मास्तिकाय द्रव्यरूप सहकारी कारण के बिना गति नहीं कर सकता, इसलिए जीव और पुद्गल को गति में सहाय करने के स्वभाववाला इस जगत में एक धर्मास्तिकाय नामका अरुपी पदार्थ १४ राजलोक जितना बड़ा हैं, असंख्य प्रदेश युक्त हैं और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द रहित है। तथा यात्रिक को - मुसाफिर को विश्राम करने में जैसे वृक्षादिक की छाया अपेक्षा कारण हैं, जल में तैरते मत्स्य को स्थिर रहने में अपेक्षा कारण जैसे द्वीप हैं, वैसे गति परिणाम से परिणत हुए जीवो को तथा पुद्गलो को स्थिर रहने में अपेक्षा कारणरूप अधर्मास्तिकाय नाम का एक अरूपी पदार्थ १४ राजलोक जितना बड़ा है, असंख्य प्रदेशी हैं और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द रहित है । यहाँ स्थिर रहे हुए जीव-पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय की प्रेरणा (अर्थात् गतिमान न होता हो तो भी बलपूर्वक गतिमान करे ऐसा) नहीं है, उपरांत गति करते जीव पुद्गल को स्थिर करने में अधर्मास्तिकायकी प्रेरणा नहीं है, परन्तु जीव - पुद्गल जब जब अपने स्वभाव से गतिमान वा स्थितिमान हो तब तब ये दो द्रव्य केवल उपकारी कारण रूप से ही सहायक होते हैं। 12.धम्माधम्मा पुग्गल, नह कालो पंच हुंति अज्जीवा, चलणसहावो धम्मो, थिरसंठाणो अहम्मो य ।।९।। अवगाहो आगासं पुग्गलजीवाण, पुग्गला चउहा, खंधा देस पएसा, परमाणू चेव नायव्वा ।।१०।। (नव. प्र.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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