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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन १५/६३८ "असत् वस्तु में सत्ता का संबंध होना तथा अपने कारणो में समवायसंबंध से रहना वह कार्य"-ऐसा लक्षण भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि लक्षण में जो समवायसंबंध ग्रहण किया हुआ है वह नित्य है और नित्य होने से वह जहां रहे, वहाँ हमेशां रहता है और उसी तरह से उसमें जो सत्ता के संबंध का निवेश किया है वह सत्ता भी नित्य है । इसलिए नित्यसमवाय - अनित्यकार्य का लक्षण नहीं हो सकता । फिर भी उसको अनित्यकार्य का लक्षण मानोंगे तो पृथ्वी आदि कार्य भी नित्य बन जायेगा और जो नित्य हो वह उत्पन्न होता न होने से, जगत में कोई कार्य बाकी रहेगा नहि कि जिसके कर्ता के रुप में ईश्वर की सिद्धि हो। __उपरांत योगी अपने ध्यान के बल से कर्मो का क्षय करता है। इसलिए कर्मो का नाश योगीयो के ध्यान का फल होने के कारण अवश्य कार्य है। परंतु कार्य में सत्ता या समवाय रहते नहि है। इसलिए कार्य का यह लक्षण पक्ष के एक भाग में रहता न होने से भागासिद्ध दोष लगता है। कर्मो का नाश प्रध्वंसाभावस्वरुप होने से अभाव नाम का पदार्थ है। सत्ता, द्रव्य, गुण, कर्म ये तीन पदार्थों में ही रहती है तथा समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष ये पांच पदार्थों में ही (आपके मतानुसार) रहता है। इसलिए अभाव में सत्ता या समवाय का अभाव होने से ऐसा अधूरा लक्षण है कि जो पूरे पक्ष में रहता नहिं है। इससे वह कार्यसाधक नहीं हो सकता। ॥२॥ जिसमें "कृतम् किया हुआ"-ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो वह कार्य । ऐसा कार्य का लक्षण भी नित्य आकाश में रहने के कारण अनैकान्तिक है। क्योंकि जमीन खोदकर कुआं बनाया जाता है, तब मिट्टी और कीचड बाहर निकलते है और आकाश होता है। वहां आकाश में 'कृतम्' इस अनुसार से बुद्धि होती है। फिर भी आकाश कार्य नहीं है। (क्योंकि आपके सिद्धांतानुसार वह नित्य है।) इसलिए अकार्य आकाश में लक्षण जाने से अनैकान्तिकदोष लगता है। ॥३॥ ___ "जो विकारि हो-जिसमें परिवर्तन हो वह कार्य ।" कार्य का यह लक्षण भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने से ईश्वर में भी कार्यत्व मानना पडेगा । वर्तमानकाल में रही हुई अवस्था में अन्यथाभाव (परिवर्तन) होना उसे विकारिपन कहा जाता है। वैसा विकारिपन ईश्वर में भी है। इसलिए ईश्वररुप कार्य के बुद्धिमत्कर्ता के रुप में दूसरे को मानना पडेगा । उस अपर के कर्ता के लिए तीसरी व्यक्ति को माननी पडेगी। उस तीसरे व्यक्ति केकर्ता के रुप में चौथी व्यक्ति का स्वीकार करना पडेगा। इस तरह से अनवस्था (अप्रामाणिक अनंत व्यक्तियों की कल्पनारुप) दोष आ जायेगा और ईश्वर को अविकारी मानोंगे तो जगत के सभी विचित्रकार्य अतिदुर्घट बन जायेंगे। अर्थात् ईश्वर को अविकारी मानने में कार्यकारित्व अतिविषय बन जायेगा । कहने का मतलब यह है कि - "जो विकारी हो वह कार्य कहा जाता है।" ऐसा आप कहोंगे तो जगत का सर्जन, रक्षण और विलय करते हुए ईश्वर भी कार्य बन जायेंगे । अर्थात् जिस वक्त ईश्वर जगत का सर्जन करते होंगे, तब उसमें सर्जकस्वभाव होगा । परन्तु जगत का रक्षण करते वक्त उनका सर्जनहार के रुप का स्वभाव नहि होगा। परंतु रक्षकके रुप का स्वभाव होगा। वैसे ही जब सृष्टि का विनाश करते होंगे, तब सृष्टिनाशक का स्वभाव होगा। इसलिए उनके स्वभाव बदलने से वे विकारी सिद्ध होंगे। क्योंकि एक भाव में से अन्यथाभाव में जाये उसे विकारी कहा जाता है। इसलिए ईश्वर विकारी बनेगा और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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