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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८१, लोकायतमत
व्याख्येयम् - लोकप्रसिद्धा बहुश्रुता इति, तथा ह्येते वृकपदविषये सम्यगविदितपरमार्था बहवोऽप्येकसदृशमेव भाषमाणा अपि बहुमुग्धजनध्यान्ध्यमुत्पादयन्तोऽपि ज्ञाततत्त्वानामादेयवचना न भवन्ति । तथा बहवोऽप्यमी वादिनो धार्मिकच्छद्मधूर्ताः परवञ्चनैकप्रवणा यत्किंचिदनुमानागमादिभिर्दार्थमादर्श्य जीवाद्यस्तत्वं सदृशमेव भाषमाणा अपि मुधैव मुग्धजनान् स्वर्गादिप्राप्तिलभ्यसुखसन्ततिप्रलोभनया भक्ष्याभक्ष्यगम्यागम्यहेयोपादेयादिसङ्कटे पातयन्तो बहुमुग्धधार्मिकव्यामोहमुत्पादयन्तोऽपि
सतामवधीरणीयवचना एव भवन्तीति । ततः सा पत्युर्वचनं सर्वं मानितवती । । ८१ ।।
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व्याख्या का भावानुवाद :
अब जो लोग परोक्षविषय में अनुमानादि की प्रमाणता मानकर अर्थात् अनुमान आदि प्रमाणो के द्वारा परोक्ष ऐसे जीवादिपदार्थो की व्यवस्था करते है और किसी भी तरह से विराम प्राप्त करते नहीं है, उनको बोध देने के लिए दृष्टांत कहते है - नास्तिकमत की वासना से वासित अंतःकरणवाला कामासक्त कोई पुरुष अपनी आस्तिकमत में आस्थावाली धार्मिकपत्नी को हररोज अपने शास्त्रो की युक्तिओं से (काम-भोगो के प्रति आकर्षण पैदा कराने के लिए) प्रतिबोध करता है । परंतु वह स्त्री जब प्रतिबोध पाती नहीं है, तब वह कामासक्त पुरुष इस उपाय से में उसे प्रतिबोध करूंगा, इस अनुसार अपने चित्त में सोचकर रात्रि के अंतिम प्रहर में उस स्त्री के साथ नगर से बाहर निकलता है, इस अनुसार से कहता है कि हे प्रिये ! जो ये नगरवासिलोग परोक्ष ऐसे आत्मा के विषय में अनुमानादि की प्रमाणता को कहते और लोगो को द्वारा बहुश्रुत कहे जाते नगर में रहते है, उनकी सुंदर विचारणाओ की चतुरता का (चातुर्य को ) तुम देखो । अर्थात् वे लोग बहुश्रुत कहे जाते है फिर भी उनकी मूर्खता को तुम देखो । उसके बाद वह पुरुष नगर के द्वार से आरंभ करके यावत् नगर के मुख्य चौराहे तक के मंथरतर (धीमी गति से बहुत पवन से खींच के आई हुई रेत से व्याप्त राजमार्ग के उपर दोनो हाथ के अंगुठे, तर्जनी, मध्यमा - ये तीन उंगलीओ को मिलाकर अपने शरीर के दोनो पक्ष को रेत में स्थापित करके वृक (भेडिये) के पैर के निशान छापे । (वे पति-पत्नी इस घटना के बाद देखते है कि क्या होता है ?) तब सुबह में उन पैर के निशानो को देखकर बहोत लोग राजमार्ग के उपर इकठ्ठे होते है । बहुश्रुत लोग भी वहाँ आये है । आये हुए वे बहुश्रुत लोगो को कहते है कि... “हे हे लोग! सुने, भेडिये के पैर के निशान दूसरे किसी भी तरह से संगत होते नहीं है। इसलिए जरुर रात्रि में कोई भेडिया यहाँ वन में से आया था।" इत्यादि चर्चा चलती है, तब वह नास्तिकमतानुयायी पुरुष उन बहुश्रुत पुरुषो को उस अनुसार से बोलते देखकर अपनी भार्या को कहता है कि, हे कल्याणि ! हे प्रिये ! भेडिये के पैरो के निशान को कहते इन बहुश्रुतो को तुम देखो। चाहे वे लोकरुढि से बहुश्रुत कहे जाते हो परंतु वे परमार्थ को जाने बिना बोलते है । इसलिए अबहुश्रुत ही है। (यहाँ " वृकपदं " पद में जाति में एकवचन है।) इसलिए ज्यादातर ऐसे धार्मिकता के वेश के नीचे ठगनेवाले, दूसरो को छलने में निष्णात, लोग को स्वर्गादि में प्राप्त होते सुख की परंपरा का प्रलोभन देकर, भक्ष्याभक्ष्य, गम्यागम्य, पेयापेय, हेय
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