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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८१, लोकायतमत
भूमिरुप स्वर्ग-नर्क, पुण्य और पाप के क्षय से उत्पन्न होने वाले मोक्षसुख का वर्णन करती हुइ कल्पनायें तो आकाश में विचित्र रंगो से विचित्र चित्र बनाने की कल्पना के समान केवल कल्पनायें ही है। वह किसको हास्यास्पद न बने ? इसलिए न स्पर्श किये हुए, न स्वाद में आये हुए, सुंघने में नहि आये हुए, नहि देखे हुए, हि सुने हुए ऐसे, भी अतीन्द्रिय जीवादि पदार्थो का आदर करते हुए, स्वर्ग- मोक्ष आदि के सुख की लिप्सा से ठगी गई (छल की गई) बुद्धिवाले भ्रष्ट हुए बुद्धिवाले जो लोग मस्तक मुंडाके कठोर तप करके, दुश्चर तप को धारण करके, कष्टदायक चारित्र का पालन कर के, दुःसह ताप के परिषह को सहन करके इत्यादि क्लेशो के द्वारा अपने जन्म को निष्फल बनाते है। वह उनका महामोह के तीव्र उदय का विलासमात्र है - केवल वे दयापात्र है । इसलिए कहा भी है कि - "विविध तप केवल निरर्थक दारुण यातना सहने बराबर है । अनेक प्रकार का संयम केवल भोग से वंचित रहने समान है । अग्निहोत्र क्रियाए बालचेष्टा ही मालूम होती है । इसलिए जब जीवित हो तब तक सुख से जीओ और भरपूर विषयसुखो को भोग करना । जब यह देह भस्मीभूत होगा, तब इसमें से कुछ भी पुन: मिलनेवाला नहीं है। इसलिए आगे की भ्रामकसुख की इच्छा से वर्तमानकालीन सुख को छोडने की जरुरत नहीं है ।" इसलिए वह बात निश्चित होती है कि, इन्द्रियगोचर पदार्थ ही तात्त्विक है। उसकी ही वास्तविक सत्ता है ।
अथ ये परोक्षे विषयेऽनुमानागमादीनां प्रामाण्येन जीवपुण्यपापादिकं व्यवस्थापयन्ति न जातुचिद्विरमन्ति तान् प्रबोधयितुं दृष्टान्तं प्राह “ भद्रे वृकपदं पश्यं” इति । अत्रायं संप्रदायः-कश्चित्पुरुषो नास्तिकमतवासनावासितान्तःकरणो निजां जायामास्तिकमतनिबद्धमतिं स्वशास्त्रोक्तयुक्तिभिरभियुक्तः प्रत्यहं प्रतिबोधयति । सा तु यदा न प्रतिबुध्यते तदा स इयमनेनोपायेन प्रतिभोत्स्यत इति स्वचेतसि विचिन्त्य निशायाः पश्चिमे यामे तया समं नगरान्निर्गत्य तां प्रत्यवादीत् । “प्रिये ! य इमे नगरवासिनो नराः परोक्षविषये ऽ Sनुमानादिप्रामाण्यमाचक्षाणा लोकेन च बहुश्रुततया व्यवह्रियमाण विद्यन्ते, पश्य तेषां चारुविचारणायां चातुर्यं” इति । ततः स नगरद्वारादारभ्य चतुष्पथं यावन्मन्थरतरप्रसृमर-समीरणसमीभूतपांशु प्रक राजमार्गे द्वयोरपि स्वकरयोरङ्गुष्ठप्रदेशिनी - मध्यमाङ्गुलित्रयं मीलयित्वा स्वशरीरस्योभयोः पक्षयो पांशुषु न्यासेन वृकपदानि प्रचक्रे । ततः प्रातस्तानि पदानि निरीक्ष्यास्तोको लोको राजमार्गेऽमिलत् । बहुश्रुता अपि तत्रागता जनान् प्रत्यवोचान् “भो भो वृकपदानामन्यथानुपपत्त्या नूनं निशि वृकः कश्चन वनतोऽत्रागच्छत्" इत्यादि । ततः स तांस्तथाभाषमाणान्निरीक्ष्य निज़ां भार्यां जजल्प । हे भद्रे प्रिये वृकपदं ' अत्र जातावेकवचनं' पश्य निरीक्षस्व किं तदित्याह । यद्-वृकपदं वदन्ति - जल्पन्त्य - बहुश्रुतालोकरूढ्या बहुश्रुता अप्येते परमार्थमज्ञात्वा भाषमाणा अबहुश्रुता एवेत्यर्थः । यद्वदन्ति बहुश्रुता इति पाठे त्वेवं
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