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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८१, लोकायतमत ३७७/१००० श्लोकार्थ : लोकायत = नास्तिक कहते है कि-"जीव नहीं है, मोक्ष नहीं है, धर्म-अधर्म नहीं है, पुण्य-पाप का फल कुछ भी नहीं है।" ॥८०॥ व्याख्या-लोकायता-नास्तिका एवं-इत्थं वदन्ति । कथमित्याह । जीवश्चेतनालक्षणः परलोकयायी नास्ति, पञ्चमहाभूतसमुद्भूतस्य चैतन्यस्येहैव भूतनाशे नाशात्परलोकानुसरणासंभवात् । जीवस्थाने देव इति पाठे तु देवः सर्वज्ञादिर्नास्ति । तथा न निवृत्तिर्मोक्षो नास्तीत्यर्थः । अन्यञ्च धर्मश्चाधर्मश्च धर्माधर्मो न विद्यते पुण्यपापे सर्वथा न स्त इत्यर्थः । न-नैव पुण्यपापयोः फलं-स्वर्गनरकादिरूपमस्ति, धर्माधर्मयोरभावे कुतस्त्यं तत्फलमिति भावः ।।८।। व्याख्या का भावानुवाद : चैतन्यलक्षणवाला परलोकगामी आत्मा नहीं है। क्योंकि पांच महाभूत में से उत्पन्न हुआ चैतन्य पांच भूतो का नाश होने से, यहीं नाश हो जाता है। इसलिए परलोक में जाने का कोई संभव ही नहीं है। जीव के स्थान पर देव पाठ भी देखने को मिलता है। इसलिए उनके मतानुसार सर्वज्ञादि विशेषणोवाले कोई देव नहीं है। उसी तरह से मोक्ष नहीं है। धर्म और अधर्म भी नहीं है। पुण्य-पाप सर्वथा नहीं है। पुण्य-पाप के फलरुप स्वर्ग-नरकादि भी नहीं है । जहाँ धर्म-अधर्मरुप कारण ही नहीं है, तो उसके फल कहां से होंगे? ||८०॥ सोल्लुण्ठं यथा ते स्वशास्त्रे प्रोचिरे तथैव दर्शयन्नाहजिस अनुसार से चार्वाकलोग सोल्लंठ = दूसरो की मजाक (हंसी) करते हुए दूसरो की अच्छी बातो की निंदा करते हुए अपने शास्त्र में तत्वनिरुपण करते है, उस अनुसार ही (यहां कुछ नमूना) बताते हुए कहते है कि.. (मू. श्लो.) तथा च तन्मतम् - एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रिगोचरः । भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ।।८१।। श्लोकार्थ : नास्तिको का मत है कि, जितना आंख से दिखाई देता है, इन्द्रियो से ग्राह्य बनता है, उतना ही यह लोक है। जो अबहुश्रुत, अज्ञानी लोग इन्द्रिय से अगोचर अर्थ की कृत्रिम = अवास्तविक "वृकपद्" की तरह अनुमान से सत्ता मानते है । हे कल्याणि ! यह आश्चर्य तुम देखो ! ॥८१॥ व्याख्या-“तथा च” इत्युपदर्शने । तन्मतं-प्रक्रमान्नास्तिकमतम् । तत्कीदृगित्याह-अयंप्रत्यक्षो लोको-मनुष्यलोकः । एतावानेव-एतावन्मात्र एव । यावान्-यावन्मात्रः । इन्द्रियगोचरः-इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि पञ्च तेषां गोचरो-विषयः, पञ्चेन्द्रियविषयीकृतमेव वस्तु विद्यते नापरं किमपि । लोकग्रहणाल्लोकस्थाः पदार्थसार्था ग्राह्याः । ततो यत्परे जीवं पुण्यपापे तत्फलं स्वर्गनरकादिकं च प्राहुः, तन्नास्ति, अप्रत्यक्षत्वात् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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