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________________ ३७६/९९९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८०, लोकायतमत वर्षे कस्मिन्नपि दिवसे सर्वे संभूय यथानामनिर्गमं स्त्रीभिरभिरमन्ते । धर्मं कामादपरं न मन्वते । तन्नामानि चार्वाका लोकायता इत्यादीनि । 'गलचर्व अदने' चर्वन्ति भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिकं परोक्षं वस्तुजातमिति चार्वाकाः । “मयाकश्यामाक" इत्यादिसिद्धहैमोणादिदण्डकेन शब्दनिपातनम् । लोकाः-निर्विचाराः सामान्यलोकास्तद्वदाचरन्तिस्मेति लोकायता लोकायतिका इत्यपि । बृहस्पतिप्रणीतमतत्वेन बार्हस्पत्याश्चेति ।। व्याख्या का भावानुवाद : प्रथम नास्तिकमत का स्वरुप कहा जाता है। लोकायत-चार्वाकमत के अनुयायि कापालिको की तरह एक कपाल रखते है। शरीर के उपर भस्म लगाते है। ब्राह्मण से लेकर अन्त्य = शुद्र तक के सभी जाति के कुछ लोग नास्तिक होते है। वे जीव, पुण्य, पाप आदि अतीन्द्रियपदार्थो को मानते नहीं है। भूतचतुष्टयरुप इस जगत को मानते है। अर्थात् इस जगत को पृथ्वी, अप् (पानी), तैजस् और वायु इन चारभूतो से उत्पन्न हुआ मानते है। उससे अतिरिक्त पांचवें तत्व की सत्ता वे मानते नहीं है। कोई चार्वाक पांचवे भूत के रुप में आकाश को मानते है। उनके मतानुसार जगत पंचभूतात्मक है। उनके मत में जैसे महुडे, गुड आदि के संयोग से मदशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे इस भूतो से चैतन्य उत्पन्न होता है। तथा जल में उत्पन्न होते बुलबुले पानी में ही विलीन होते है, वैसे भूतो में से उत्पन्न होते जीव भूतो में ही विलीन हो जाते है। चैतन्यविशिष्ट शरीर ही आत्मा है । वे मदिरापान करते है, मांस खाते है, तथा माता आदि अगम्या स्त्रीओ में भी व्यभिचार का सेवन करते है। (वे ये तीनो धर्मबुद्धि से करते हैं।) वे प्रतिवर्ष कोई एक दिन इकट्ठे होते है और जिस पुरुष का नाम जो स्त्री के साथ नीकले, वह पुरुष उस स्त्री के साथ यथेच्छरुप से क्रीडा करता है (और उस दिन को वे पर्वदिन मानते है।) वे कामसेवन से अधिक दूसरा धर्म मानते नहीं है। चार्वाक, लोकायत आदि नाम से पहचाने जाते है। गल और चर्व धातु भक्षणार्थक है। इसलिए चर्वन्ति = खाना - पीना और मौज करना ये उनका एकमात्र लक्ष्य है। तथा पुण्य-पापादि अतीन्द्रिय वस्तुओ को वास्तविक मानते नहीं है, वे चार्वाक कहे जाते है। "मयाक-श्यामाक" आदि सिद्ध हैमव्याकरण के औणादिक सूत्र से "चार्वाक" शब्द निपातसंज्ञक सिद्ध होता है। सामान्य विचारशून्य लोगो की तरह जो आचरण करते है, वे लोकायत या लौकायतिक कहे जाते है। (चार्वाको के गुरु बृहस्पति है। इसलिए) बृहस्पतिप्रणीत मत के अनुयायी होने के कारण बार्हस्पत्य भी कहे जाते है । ॥७९॥ अथ तन्मतमेवाह - अब उनके मत को ही कहते है। ___(मू. श्लो.) लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः । धर्माधर्मों न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः ।।८०।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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