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________________ ३६४ / ९८७ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ७५, मीमांसक दर्शन - तात्पर्य यह है कि, जो प्रतिपत्तृ = जाननेवाले ज्ञाताने गाय को देखा है, गवय को आज तक देखा नहीं है । "गाय के समान गवय है" ऐसे अतिदेशवाक्य को भी सुना नहीं है, उस व्यक्ति को अरण्य में फिरतेफिरते पहलीबार ही गवय का दर्शन होता है और "इसके समान वह गाय है" ऐसा गाय में गवय की समानता का जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे उपमान कहा जाता है । उपमान का विषय सादृश्यविशिष्ट परोक्षगाय है या गोविशिष्टसादृश्य है । यह उपमान अनधिगतपदार्थ को बतानेवाला होने से प्रमाण है । अर्थात् अनधिगतपदार्थ को जाननेपन उपमान में होने से, उसमें प्रामाण्य संगत होता है। (उपमान अनधिगतपदार्थ को बतानेवाला है ।) क्योंकि गवयविषयक प्रत्यक्ष के द्वारा गवय ही विषय किया गया है। परंतु असन्निहित = परोक्षगाय की सदृशता विषय बनी नहीं है। अर्थात् गवय को जाननेवाला प्रत्यक्ष तो केवल गवय को ही जानता है, परंतु परोक्षगाय की सदृशता तो जानता नहीं है। यद्यपि पहले गोविषयक प्रत्यक्ष हुआ था, तो भी तब गवय अत्यंत अपरोक्ष ही थी। तो किस तरह से उसके द्वारा गवय की अपेक्षा से गाय में सादृश्यज्ञान होगा ? । इस अनुसार से "गवय के समान गाय है" यह प्रतीति ( न तो गवय प्रत्यक्ष द्वारा पहेले हुई है या न तो गोप्रत्यक्ष द्वारा हुई है।) इसलिए वह प्रतीति अनधिगत ही है। इस तरह से गवय के दर्शन से परोक्ष गाय में होनेवाला सादृश्यज्ञान अगृहीतग्राहि होने से प्रमाण है | ॥७४॥ अथार्थापत्तिलक्षणमाह- अब अर्थापत्ति लक्षण कहते है (मू. श्लो.) दृष्टार्थानुपपत्त्या तु कस्याप्यर्थस्य कल्पना । क्रियते यद्बलेनासावर्थापत्तिरुदाहृता ।।७५।। श्लोकार्थ : दृष्टपदार्थ की अनुपपत्ति के बल से जो कोई भी अदृष्टपदार्थ की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है | ॥७५॥ व्याख्या-प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणैर्दृष्टः- प्रसिद्धो योऽर्थः, तस्यानुपपत्त्या-अन्यथाऽसंभवेन तुः-पुनः कस्याप्यन्यस्य - अदृष्टस्यार्थस्य कल्पना यद्बलेन -यस्य ज्ञानस्य बलेन सामर्थ्येन क्रियते । " दृष्टाद्यनुपपत्त्या ” इति पाठे तु दृष्टः प्रमाणपञ्चकेन, आदिशब्दात् श्रुतः शाब्दप्रमाणेन तस्य दृष्टस्य श्रुतस्य चार्थस्यानुपपत्त्या कस्याप्यर्थस्य कल्पना यद्बलेन क्रियत इति प्राग्वत् । असावदृष्टार्थकल्पनारूपं ज्ञानमेवार्थापत्तिरुदाहृता । अत्रेदं सूत्रं “ अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पना” (शा.भा-१/१/५) इति । अत्र प्रमाणपञ्चकेन दृष्टः शब्देन श्रुतश्चार्थी मिथोर्वैलक्षण्यज्ञापनार्थं पृथक्कृत्योक्तौ स्तः । शेषं तुल्यम् । इदमुक्तं भवति - प्रत्यक्षादिप्रमाणषट्कविज्ञातोऽर्थो येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य कल्पनमर्थापत्तिः । तत्र प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्तिः यथाग्नेः प्रत्यक्षेणोष्णस्पर्शमुपलभ्य दाहकशक्तियोगोऽर्थापत्त्या प्रकल्प्यते । न हि शक्तिरध्यक्षपरिच्छेद्या नाप्यनुमानादिसमधिगम्या प्रत्यक्षया शक्तया सह कस्यचिदर्थस्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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