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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६६, वैशेषिक दर्शन ३३९/९६२ विशेष कहा जाता है।" इस तरह से सूत्र का अर्थ होगा। सूत्र में "नित्यद्रव्यवृत्तयः" को अन्त्यपद का विवरण मान के इस अनुसार से अर्थ कहा है। तथा कहा है कि... "नित्यद्रव्य उत्पत्ति और विनाश से अन्त=पर रहे हुए होने से उनको "अन्त" कहा जाता है। उस अन्त में रहनेवाले अर्थात् नित्यद्रव्य में रहनेवाला विशेषपदार्थ अन्त्य भी कहा जाता है," ये विशेष अत्यंत व्यावृत्तबुद्धि कराने में कारण होने से द्रव्यादि से विलक्षण है। इसलिए स्वतंत्र पदार्थ है। ॥६५॥ अथ समवायं स्वरुपतो निरुपयति । अब समवाय के स्वरुप का निरुपण करते है। (मू. लो.) य इहायुतसिद्धानामाधारधेयभूतभावानाम् । संबन्ध इह प्रत्ययहेतुः स हि भवति समवायःA ।।६६ ।। श्लोकार्थ : अयुतसिद्ध - आधार- आधेयभूतपदार्थो के "यह इसमें है" इत्याकारक "इहेदं" प्रत्यय में कारणभूतसंबंध समवाय कहा जाता है । ॥६६॥ __ व्याख्या केचिद्धातुपारायणकृतो ‘यु अमिश्रणे' इति पठन्ति, तत एवायुतसिद्धानामित्यादि वैशेषिकीयसूत्रे अयुतसिद्धानामपृथकसिद्धानामिति व्याख्यातम् । तथा लोकेऽपि भेदाभिधायी युतशब्दः प्रयुज्यमानो दृश्यते, द्वावपि भ्रातरावेतौ युतौ जातावित्यादि । ततोऽयमत्रार्थः । “इह" वैशेषिकदर्शने “अयुतसिद्धानाम्” अपृथक्सिद्धानां, तन्तुषु समवेतपटवत् पृथगाश्रयानाश्रितानामिति यावत् आधाराश्चाधेयाश्च आधाराधेया ते भवन्ति स्म “आधाराधेयभूताः" ते च ते भावाश्चार्थाः तेषां यः “संबन्ध इह प्रत्ययहेतुः" इह तन्तुषु पटः इत्यादेः प्रत्ययस्यासाधारणं कारणं “स हि" स एव “भवति समवायः” संबन्धः । यतो हीह तन्तुषु पटः, इह पटद्रव्ये गुणकर्मणी, इह द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता, इह द्रव्ये द्रव्यत्वं, इह गुणे गुणत्वं, इह कर्मणि कर्मत्वं, इह द्रव्येष्वन्त्या विशेषा इत्यादि विशेषप्रत्यय उत्पद्यते, स पञ्चभ्यः पदार्थेभ्योऽर्थान्तरं समवाय इत्यर्थः । स चैको विभुर्नित्यश्च विज्ञेयः ।।६६ ।। व्याख्या का भावानुवाद : कोई धातुपाठी यु धातु का "अमिश्रण" अर्थ में भी पाठ करते है। इसलिए वैशेषिकसूत्र में "अयुतसिद्धानाम्" पद का व्याख्याकारो ने "अपृथक्सिद्धानाम्" अर्थ किया है । लोकव्यवहार में भी भेद को कहनेवाले "युत" शब्द का प्रयोग होता दिखाई देता है। "ये दोनो भी भाई साथ जनमें" इसका अर्थ यह हुआ कि दोनो भाइयो की सत्ता पृथक् - पृथक् है - दोनो भिन्न-भिन्न है। (युत = संयुक्त तो दो भिन्न सत्तावाले पदार्थ ही हो सकते है। एक में तो संयुक्त या युत व्यवहार दिखाई नहीं देता है।) इसलिए A अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः संवन्ध इह प्रत्ययहेतुः स समवायः । एवं धर्मविना धर्मिणामुद्देशकुतः ।।” प्रश० भा० पृ.५ । । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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