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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६५, वैशेषिक दर्शन
इसलिए ही विशेष के लक्षण में "नित्यद्रव्यवृत्ति" और अन्त्य इन दो पदो को ग्रहण किये है। प्रत्येक नित्यद्रव्य में एक एक ही विशेषपदार्थ रहता है। अनेक नहि । जब एक ही विशेष से उस नित्यद्रव्य की अन्य पदार्थो से व्यावृत्ति हो जाती हो तो अनेक विशेष की कल्पना निरर्थक है। (सर्वनित्य द्रव्यो में एक एक विशेष होने से कुलविशेष अनंत है । (सर्वनित्य द्रव्यो के आश्रय में विशेष बहोत होने पर भी एकवचन का प्रयोग जाति की = संग्रह की अपेक्षा से किया है । [ कहने का मतलब यह है कि संसार का प्रलय होने के बाद तथा संसार के प्रारंभ में सर्वत्र परमाणु परमाणु ही दिखाई देते है। इसलिए उसको “अन्त” कहा जाता है । इस तरह से मुक्तजीवो के आत्मा तथा मुक्तजीवो के मन भी संसार का अंत कर चूके होने से अन्त कहे जाते है । ये सब भी अन्त = अंतिम चीजो में विशेषपदार्थ व्यावृत्तिबुद्धि कराता है। उसमें उसका रहना है इसलिए यह “अन्त्य” कहा जाता है। इस अंतिम अवस्था में मिलते परमाणु आदि में विशेषपदार्थ का कार्य स्पष्टतया मालूम पडता है। क्योंकि वे सभी परमाणु आदि तुल्यगुण, तुल्यक्रिया तथा तुल्यआकृति आदि वाले है । इसलिए उसमें अन्यनिमित्तो से व्यावृत्तबुद्धि हो सकती नहीं है । उस कारण से उसमें विशेषपदार्थ ही व्यावृत्तबुद्धि करवाता है और योगीयों को विशेषपदार्थ उनमें स्पष्ट दिखता ही है । यह विशेषपदार्थ सर्व परमाणु आदि नित्यद्रव्यो में रहता है । अन्त=अंतिम चीजो में विशेष का स्फुटतरप्रतिभास होता है। इसलिए लक्षण में "नित्यद्रव्यवृत्ति" और "अन्त्य" दोनो विशेषण दिये है। शेष उपर अनुसार)
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तथा प्रशस्तपादभाष्यकार ने कहा है कि... "विशेष अन्त = अंतिम अवस्था प्राप्त द्रव्यो में रहने के कारण अन्त्य है। अपने आश्रयभूत द्रव्य का विशेषक = भेदक होने से विशेष है। अर्थात् अपने आश्रयभूतद्रव्य का विशेषक - भेदक होने से विशेष है। अर्थात् अपने आश्रयभूतद्रव्य को अन्य से व्यावृत्ति करवाता है। इसलिए विशेष - भेदक है । वह विनाश और आरंभरहित परमाणु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन इन नित्यद्रव्यो में प्रत्येक में एक-एक करके रहता है। तथा अत्यंत व्यावृत्तबुद्धि कराने में कारणभूत होता है। जैसे हम लोगो को गाय आदि में अश्वादि से जाति, आकृति, गुण, क्रिया, विशिष्ट अवयव, घडे में घंट आदि के संयोग आदि से विलक्षणबुद्धि होती है कि... "वह गाय है, सफेद है, शीघ्रगतिवाली है। पुष्टस्कन्धवाली है, घडे में बडा घंट है, " इसी तरह से हम लोगो से विशिष्ट ज्ञानवाले योगीओ को समान आकृति, समानगुण तथा समानक्रियावाले नित्य परमाणुओ में मुक्तात्माओ में तथा मुक्तात्माओ के मनो में अन्य जाति आदि व्यावर्तक निमित्त से परमाणु आदि में "यह विलक्षण है, यह विलक्षण है ।" यह विलक्षण=व्यावृत्त बुद्धि होती है । उसको अन्त्य विशेष कहा जाता है। तथा इस विशेषपदार्थ के कारण देश-काल से "वही यह परमाणु है ।" ऐसा प्रत्यभिज्ञान (निर्बाधरूप से) होता है ।
अन्य व्याख्याकार विशेष के लक्षण में यह सूत्र कहते है " नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः " नित्यद्रव्य में रहनेवाला अन्त्य विशेष है ।
"सभी वाक्य सावधारण होते है"
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" इस न्याय से नित्यद्रव्यो में ही जिनकी वृत्ति है, उसे
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