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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६५, वैशेषिक दर्शन 1 त्सामान्यविशेषभावः सिद्ध इति । अत्र सत्तायोगात्सत्त्वं यदिष्यते तद्रव्यगुणकर्मस्वेव न पुनराकाशादिषु, आकाशकालदिक्षु हि वस्तुस्वरूपमेवास्तित्वं स्वीक्रियते व्यक्त्यैक्यादिकारणैः । तथा चोदयनः “ व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः रूपहानिरसंबन्धो जातिबाधकसङग्रहः ।।9।।” [ प्रश० किरणा० पृ-३३] अस्य व्याख्याव्यक्तेरभेद एकमनेकवर्ति सामान्यम् । आकाशे व्यक्तेरभेदान्न जातित्वम् १ । पृथिवीत्वे जात यदि भूमित्वमुच्यते, तदा 'तुल्यत्वम् २ । परमाणुषु जातित्वेऽङ्गीकृते पार्थिवाप्यतैजसवायवीयत्वयोगात्सङ्करः ३ । सामान्ये यदि सामान्यमङ्गीक्रियते, तदा मूलक्षतिकारिणी अनवस्थिति: ४ । विशेषेषु यदि सामान्यं स्वीक्रियते, तदा विशेषस्य रूपहानिः ५ । यदि समवाये जातित्वमङ्गीक्रियते, तदा संबन्धाभावः । केन हि संबन्धेन तत्र सत्ता संबध्यते ?, समवायान्तराभावादिति ६ । परे पुनः प्राहुः - सामान्यं त्रिविधं महासामान्यं सत्तासामान्यं सामान्यविशेषसामान्यं च । तत्र महासामान्यं षट्स्वपि पदार्थेषु पदार्थत्वबुद्धिकारि । सत्तासामान्यं त्रिपदार्थसष्टुद्धिविधायि । सामान्यविशेषसामान्यं तु द्रव्यत्वादि । अन्ये त्वाचक्षते त्रिपदार्थसत्कारी सत्ता, सामान्यं द्रव्यत्वादि, सामान्यविशेषः पृथिवीत्वादिरिति । लक्षणभेदादेतेषां सत्तादीनां द्रव्यगुणकर्मभ्यः पदार्थान्तरत्वं सिद्धम् । ३३४ / ९५७ व्याख्या का भावानुवाद : , पर और अपरसामान्य में परसामान्य सत्ता है । "यह सत् है", "यह सत् है" - इस प्रकार का अनुगताकारकज्ञान का जो कारण बनता है उसको सत्तासामान्य कहा जाता है। अर्थात् सत्ता, "यह सत् है", "यह सत् है, यह सत् है" इस सद्रुप से अनुगतज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनती है। वह सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन पदार्थो में “सत् सत्" इत्याकारक अनुवृत्ति = अनुगतज्ञान का ही कारण बनती है। इसलिए वह सामान्य ही है। परन्तु विशेष नहीं है । अर्थात् सत्ता मात्र सामान्यरुप ही है, विशेषरूप नहीं है । अब अपरसामान्य को कहते है । द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व अपर सामान्य है । उसमें नौ द्रव्यो में "यह द्रव्य है, यह द्रव्य है" इत्याकारक जो बुद्धि होती है उसमें कारण द्रव्यत्व, अपर सामान्य है । इस अनुसार से रुपादि सभी गुणो में "यह गुण है, यह गुण है" इत्याकारकबुद्धि को करनेवाला गुणत्व अपरसामान्य है। पांचो कर्मों में "यह कर्म है, यह कर्म है" इत्याकारक बुद्धि में कारण कर्मत्व अपरसामान्य 1 वे द्रव्यत्वादि अपने आश्रय ऐसे द्रव्यादि में अनुगताकारक ज्ञान के कारण होने से सामान्य भी है और अपने आश्रय को विजातीयगुणादि से व्यावृत्त करता होने से अर्थात् व्यावृत्ति ज्ञान का कारण होने से विशेष भी कहा जाता है। इसलिए अपरसामान्य अपेक्षा से उभयरूप होने से सामान्य और विशेष दोनो संज्ञा को प्राप्त करता है। अपेक्षा का भेद होने से एक में ही सामान्य और विशेष का व्यपदेश विरोधी नहीं है । इस अनुसार से पृथ्वीत्व, स्पर्शत्व, उत्क्षेपणत्व, गोत्व, घटत्व आदि भी अनुगताकारकज्ञान के तथा व्यावृत्तिज्ञान For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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