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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६५, वैशेषिक दर्शन ३३३/९५६ बना हुआ है। जिसके द्वारा वक्र अवयव सरल हो जाता है, उस क्रिया को प्रसारण कहा जाता है। अनियतदिशा और देशो से संयोग और विभाग में कारणभूत क्रिया को गमन कहा जाता है। (अनियत किसी भी दिशा में तिरछा आदि रुप से होनेवाली सभी क्रियाएं गमन है।) लक्षण में रहे हुए अनियतशब्द से भ्रमण, पतन, स्यंदन, रेचन आदि का भी गमन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। (कहने का मतलब यह है कि उत्क्षेपण में नियत रुप से उपर के आकाशप्रदेशो से संयोग और नीचे के आकाशप्रदेशो से विभाग होता है। अवक्षेपण क्रिया में उपर के प्रदेशो से विभाग और नीचे के प्रदेशो से संयोग होता है। आकुञ्चन में वस्तु के मूल प्रारंभ के अपने ही प्रदेशो में संयोग होके अन्य आकाशप्रदेशो से विभाग होता है। प्रसारण में मूलप्रदेशो से विभाग होके अन्य अग्रभाव के आकाशप्रदेशो से संयोग होता है । जबकि गमन में अनियतदिशाओ में सभी तरफ के आकाशप्रदेशो से संयोग-विभाग होता है ।) ये पांच प्रकार के कर्म क्रियारुप है। "तु" शब्द का संबंध "सामान्य" शब्द के साथ करे । अर्थात् वैसे ही सामान्य पर और अपर के भेद से दो प्रकार का है। ॥६४|| अथ परापरे व्याख्याति - अब पर और अपर सामान्य की व्याख्या करते है - (मू. श्लो.) तत्र परं सत्ताख्यं द्रव्यत्वाद्यपरमथ विशेषस्तु । __निश्चयतो नित्यद्रव्यवृत्तिरन्त्यो विनिर्दिष्टः ।।६५।। श्लोकार्थ : उसमें सत्ता परसामान्य है। तथा द्रव्यत्व, गुणत्व आदि अपर सामान्य है। निश्चय से = परमार्थ से नित्यद्रव्य में रहनेवाला अन्त्य विशेषपदार्थ कहा जाता है। ॥६५|| व्याख्या-तत्र-तयोः परापरयोर्मध्ये परं-सामान्यं सत्ताख्यम् । इदं सदिदं सदित्यनुगताकारज्ञानकारणं सत्तासामान्यमित्यर्थः । तञ्च त्रिषु द्रव्यगुणकर्मसु पदार्थेषु सत्सदित्यनुवृत्तिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात्सामान्यमेवोच्यते, न तु विशेषः । अथापरमुच्यते “द्रव्यत्वादि" द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं चापरं सामान्यम्, तत्र नवसु द्रव्येषु द्रव्यं द्रव्यमिति बुद्धिहेतुर्द्रव्यत्वम् । एवं गुणेषु गुणत्वबुद्धिविधायि गुणत्वं, कर्मसु च कर्मत्वबुद्धिकारणं कर्मत्वम् । तञ्च द्रव्यत्वादिकं स्वाश्रयेषु द्रव्यादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात्सामान्यमप्युच्यते, स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो गुणादिभ्यो व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुतया विशेषोऽप्युच्यते । ततोऽपरं सामान्यमुभयरूपत्वात्सामान्यविशेषसंज्ञां लभते । अपेक्षाभेदादेकस्यापि सामान्यविशेषभावो न विरुध्यते । एवं पृथिवीत्वस्पर्शत्वोत्क्षेपणत्वगोत्वघटत्वादीनामप्यनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वा A. “तत्र सत्तासामान्ये परमनुवृत्तिप्रत्ययकारणमेव ।” प्रश० भा० पृ-१६५ । B. “अपरं द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिअनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात्सामान्यं विशेषश्च भवति । प्रश० भा० पृ. १६५ । १. 'तुल्यत्वम् तुल्यत्वात् न जातित्वम्' इत्यधिकम् क्वचित् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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