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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक -६०, वैशेषिक दर्शन
पाशुपतदर्शन भी कहा जाता है। (उस कणाद ऋषिने सर्वप्रथम कणादसूत्र की रचना की थी।) वैशेषिकों कणादऋषि के ही शिष्य होने के कारण काणाद भी कहे जाते है। आचार्य का “प्रागभिधानीपरिकर" यह नाम कहा जाता है। __ अब श्लोक की प्रस्तुत बात को कहा जाता है - देव को ही देवता कहा जाता है। देवताविषयक भेद वैशेषिको को नैयायिको के साथ नहीं है। इसलिए जिस प्रकार से नैयायिक नित्य, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता आदि रुप से ईश्वर को मानते है। वैसे ही प्रकार के ईश्वर को वैशेषिक देव के रुप में मानते है। इसलिए देवता के विषय में कोई मतभेद नहीं है। परन्तु तत्त्व के विषय में मतभेद है। वे तत्त्वविषयक मतभेद बताये जाते है। ॥५९॥
तमेवाह - वह तत्त्वविषयक भेद ही अब बताया जाता है - ___(मू. श्लो.)G-4°द्रव्यं गुणस्तथा कर्म सामान्यं च चतुर्थकम् ।
___ विशेषसमवायौ च तत्त्वषट्कं तु तन्मते ।।६०।। श्लोकार्थ : वैशेषिकमत में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय वे छः तत्त्व है।
व्याख्या-द्रव्यं प्रथमं तत्त्वं, गुणो द्वितीयम्, तथाशब्दो भेदान्तरसूचने कर्म तृतीयं, सामान्यं च चतुर्थमेव चतुर्थकम् स्वार्थे कप्रत्ययः, विशेषसमवायौ च पञ्चमषष्ठे तत्त्वे, उभयत्र चकारौ समुञ्चयार्थौ । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वे तत्त्वषट्कमेव न न्यूनाधिक षडेव पदार्था इत्यर्थः । तन्मते वैशेषिकमते, अत्र पदार्थषटके द्रव्याणि गुणाश्च केचिन्नित्या एव केचित्त्वनित्याः, कर्मानित्यमेव, सामान्यविशेषसमवायास्तु नित्या एवेति । केचित्त्वभावं सप्तमं पदार्थमाहु:G-44 ।।६०।। व्याख्या का भावानुवाद :
वैशेषिकमत में पहला तत्त्व द्रव्य है। दूसरा तत्त्व गुण है। श्लोक में "तथा" शब्द भेदान्तरसूचक है। तीसरा तत्त्व कर्म है। चौथा तत्त्व सामान्य है। यहाँ स्वार्थ में "क" प्रत्यय लगकर "चतुर्थकम्" बना हुआ है। पांचवा और छट्ठा तत्त्व विशेष और समवाय है। उभयत्र “च" कार समुच्चयार्थक है। श्लोक में "तु" अवधारणार्थक है। इसलिए वैशेषिकमत में छः ही तत्त्व है। उससे न्यून या अधिक नहीं है। अर्थात् पांच या सात नहीं है। वैशेषिकमत में छ: पदार्थो में से द्रव्यो और गुणो में कुछ नित्य है और कुछ अनित्य है। कर्म अनित्य है। परन्तु सामान्य, विशेष और समवाय नित्य ही है। कोई आचार्य सातवें पदार्थ अभाव को भी मानते है। ॥६०॥
अथ द्रव्यभेदानाह - अब्र द्रव्य के भेदो को कहते है।
(G-43-44) - तु० पा० प्र० प० ।
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