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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५९, वैशेषिक दर्शन ।। अर्हम् ।। ।। अथ पञ्चमोऽधिकारः । । वैशेषिकदर्शन ।। अथ वैशेषिकमतविवक्षया प्राह अब वैशेषिकमत का निरुपण करते है - (मू. श्लो.) देवताविषयो भेदो नास्ति नैयायिकैः समम् । वैशेषिकाणां तत्त्वे तु विद्यतेऽसौ निदर्श्यते ।। ५९ ।। श्लोकार्थ : वैशेषिको को देवता के स्वरुप के विषय में नैयायिको के साथ मतभेद नहीं है। परन्तु तत्त्व के विषय में मतभेद है, वह बताया जाता है । Jain Education International ३१५ / ९३८ व्याख्या- अस्य लिङ्गवेषाचारदेवादिनैयायिकप्रस्तावे प्रसङ्गेन प्रागेव प्रोचानम् । मुनिविशेषस्यकापोतीं वृत्तिमनुष्ठितवतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादायादाय कृताहारस्याहारनिमित्तात्कणाद इति संज्ञा अजनि । तस्य कणादस्य मुनेः पुरः शिवेनोलूकरूपेण मतमेतत्प्रकाशितम् । तत औलूक्यं प्रोच्यते । पशुपतिभक्तत्वेन पाशुपतं चोच्यते । कणादस्य शिष्यत्वेन वैशेषिकाः काणादा भण्यन्ते । आचार्यस्य च प्रागभिधानीपरिकर इति नाम समाम्नायते ।। अथ प्रस्तुतं प्रस्तूयते । देव एव देवता तद्विषयो भेदो- विशेषो वैशेषिकाणां नैयायिकैः समं नास्ति एतेन यादृग्विशेषण ईश्वरो देवो नैयायिकैरभिप्रेतः, तादृग्विशेषणः स एव वैशेषिकाणामपि देव इत्यर्थः । तत्त्वे तु तत्त्वविषये पुनर्विद्यते भेदः । असौ तत्त्वविषयो भेदो निदर्श्यते-प्रदर्श्यते ।।५९।। व्याख्या का भावानुवाद : वैशेषिको के लिंग, वेष, आचार तथा देवता आदि का स्वरुप नैयायिकमत के निरुपण के समय प्रसंग से बता दिया है। एक विशिष्ट मुनि कापोतीवृत्ति से मार्ग में पडे हुए चावल के कणो को ग्रहण कर करके उदरपूरण करते थे। इसलिए उनकी कणाद = कण को आद = खानेवाले की संज्ञा थी । अर्थात् आहार के निमित्त से मार्ग में पड़े हुए चावल के दानो को ग्रहण करके उदरपूरण करते वे मुनिविशेष की कणाद संज्ञा थी । अर्थात् लोग कणाद मुनि कहते थे । (जिस अनुसार से कबूतर रास्ते में पडे हुए अनाज के दानो को चोंच से बीनबीन के आजीविका चलाता है। उसी तरह से गृहस्थ के पास से याचना किये बिना रास्ते में पडे हुए दाने के भोजन से आजीविका चलाना वह कापोतीवृत्ति कही जाती है। इस कणाद मुनि के आगे शिव के द्वारा उलूक रुप धारण करके इस वैशेषिक मत का प्रारंभ में निरुपण किया गया था। इसलिए इस मत को औलुक्य दर्शन भी कहा जाता है। वैशेषिक मतानुयायी पशुपति = शिव के भक्त होने से यह दर्शन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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