SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ३/ ६२६ क्रोधादिकषाय के विजेता, इन्द्रियो का दमन करनेवाले निग्रंथ गुरु होते है। नित्य माधुकरिवृत्ति से (१)नवकोटि विशुद्ध उनका आहार होता है। संयम के निर्वाह के लिए ही वस्त्र-पात्रादि को धारण करते है। वंदन करते हुए भक्तो को 'धर्मलाभ' का आशिर्वाद देते है। दिगंबर नग्नतालिंगवाले है। अर्थात् श्वेतांबरो के जैसा वस्त्र का परिधान, रजोहरण आदि रखने का कार्य नहीं करते है। दिगंबरो के चार प्रकार है। (१)काष्ठासंघ, (२) मूलसंघ, (३) माथुरसंघ और (४) गोप्यसंघ । काष्ठासंघ में चमरीगाय के बाल से तैयार हुई पिच्छिका रखते है । मूलसंघ में मोरपिच्छ में से तैयार हुई पिच्छिका रखते है। माथुरसंघ में मूल से पिच्छिका का आदर नहि करते है । गोप्य लोग मोरपिच्छ की पिच्छिका रखते है। प्रथम तीन संघ वंदन करते हुए भक्तो को 'धर्मवृद्धि' का आशिर्वाद देते है। स्त्रीकी मुक्ति, केवलज्ञानि की भुक्ति, (अर्थात् केवलज्ञानि को कवलाहार) तथा कपडे सहित के सुन्दर व्रतवालोकी (अर्थात् वस्त्रसहित की) भी मुक्ति नहीं मानते है। परन्तु गोप्यसंघ वंदन करते हुए भक्तो को 'धर्मलाभ' का आशिर्वाद देते है । स्त्रीकी मुक्ति और केवलभुक्ति को मानते है । गोप्य 'यापनीय' भी कहे जाते है। सभी दिगंबर साधु भिक्षाटन में तथा भोजन के समय बत्तीस अंतराय और चौदह मलो का त्याग करते है। उनके शेष आचार, देव, तथा गुरु श्वेतांबरो के समान जानना । तथा श्वेतांबरो और दिगंबरो को परस्पर तर्कशास्त्रो में दूसरा कोई भेद नहीं है। ॥४४॥ अथ देवस्य लक्षणमाह - अब देव का लक्षण कहते है। (मूल श्लो०) जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः । हतमोहमहामल्लः केवलज्ञानदर्शनः ।।४५।। सूरासुरेन्द्रसंपूज्यः सद्भूतार्थप्रकाशकः । कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा संप्राप्तः परमं पदम् ।।४६।। श्लोकार्थ : रागद्वेष से रहित, महामल्लमोह के नाशक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सुर-असुर के इन्द्रो से पूज्य, यथावस्थित अर्थ प्रकार सभी कर्म का क्षय करके परमपद के प्रापक (पानेवाले) ऐसे श्री जिनेश्वर भगवंत जैनमत में देवता है। ॥४५-४६।। व्याख्या-तत्र-जैनमते जयन्ति रागादीनिति जिनाः- सामान्यकेवलिनः तेषामिन्द्र(१) माधुकरी वृत्ति अर्थात् भंवरा जैसे एक फूल में से रस चूसता नहीं है, परन्तु अलग-अलग फूलो में से चूसता है तथा फूल को किलामणा न हो, उस तरह से तृप्त होता है। वैसे निग्रंथसाधु भगवंत एक घर से भिक्षा लेते नहीं है, परंतु अलग-अलग घर फिरके भिक्षा प्राप्त करते है तथा जहां से भिक्षा पाते है, उनको बाद में अंतराय न पडे, उस तरह से ग्रहण करते है। वैसे ही निपँथ गुरुभगवंत (१) स्वयं हनन करना नहि, (२) दूसरो के पास हनन करवाना नहि, (३) स्वयं हनन करते ऐसे दूसरो की अनुमोदना करना नहीं, (४) स्वयं पकाना नहि, (५) दूसरो से पकवाना नहि, (६) स्वयं पकाते ऐसे दूसरो की अनुमोदना करनी नहि, (७) स्वयं खरीद न करे, (८) दूसरो से खरीद न करवाना, (९) स्वयं खरीद करते दूसरो की अनुमोदना करनी नहि । ये नौ प्रकार से शुद्ध आहार को ग्रहण करते है। जैनदर्शन के श्रीगुरुभगवंत ऐसा नवकोटी से विशुद्धआहार माधुकरीवृत्ति से ग्रहण करके अपना निर्वाह करते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy