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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २७१/८९४ यद्वद्वर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योन्यसंमिश्रास्तद्वन्नामादयो घटे ।।१।। नान्वयः स हि भेदित्वान्न भेदोऽन्वय-वृत्तितः । मृद्भेदद्वयसंसर्गवृत्ति जात्यन्तरं घटः ।।२ ।।” अत्र हिशब्दो हेतौ यस्मादर्थे स घटः । “भागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थो भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन, नरसिंह Bप्रचक्षते ।।३ ।। न नरः सिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः । शब्दविज्ञानकार्याणां भेदाज्जात्यन्तरं हि सः ।।४ ।। त्रैरूप्यं पञ्चरूप्यं वा, ब्रुवाणा हेतुलक्षणम् । सदसत्त्वादि सर्वेऽपि, कुतः परे न मन्वते व्याख्या का भावानुवाद : अब अनेकांत की सिद्धि के लिए बौद्धादि सर्वदर्शनो को संमत दृष्टांत और युक्तिया कही जाती है। (१) बौद्धादि सर्वदर्शन एक ही संशय ज्ञान में (परस्परविरोधी दो आकार के प्रतिभास को तथा) दो परस्पर विरोधी उल्लेखो को मानते है। तो वे अनेकांत का परिक्षेप किस तरह से कर सकते है ? (२) स्वपक्ष का साधक तथा परपक्ष के उच्छेदकरुप विरोधीधर्मो से युक्त अनुमान को माननेवाले वादि किस तरह से स्याद्वाद का निराकरण कर सकते है ? एक ही हेतु में स्वपक्ष-साधकता और परपक्ष असाधकता को मानने में अनेकांत का ही समर्थन है। (३) मोर के अण्डे के रस में (तरल प्रवाही में) जो नील, पीत्त आदि वर्ण होते है, वे एकरुप होते नहीं है या अनेकरुप भी होते नहीं है। परंतु एकानेकरुप होते है। वैसे वस्तु में भी एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक धर्म रहे हुए है। (अर्थात् मोर के अण्डे के प्रवाही रस में नील, पीत आदि अनेक रंग दिखाई देते है। उन रंगो को सर्वथा एकरुप भी कह नहीं सकते और स्वतंत्ररुप से अनेकरुप भी नहीं कह सकते । परंतु कथंचित् एकानेकरुप से तादात्म्य भाव से रहते है। उस तरह से वस्तु में एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि धर्म भी कथंचित् तादात्म्य भाव से रहते है, यही अनेकांतवाद का समर्थन है।) एक ही वस्तु में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चार निक्षेपा का व्यवहार होता है। उस नाम-स्थापना आदि से अनेकांत का समर्थन करते हए कहा है कि... "जिस तरह से मोर के अण्डे के रस में नीलादि सभी वर्ण अन्योन्य मिलकर रहते है। अर्थात् अण्डे के रस में नीलादि अनेक वर्ण परस्पर मिश्रित होके तादात्म्य भाव से रहते है, वैसे वस्तु में नामघट, स्थापनाघट आदि रुप से नामादि चारों निक्षेपा का व्यवहार होता है।" (१) (मिट्टी के घडे में) मिट्टी और घट का (सर्वथा) अन्वय =अभेद नहीं माना जा सकता, क्योंकि घटोत्पत्ति पहले की पिंडरुप मिट्टी अलग थी और घटोत्पत्ति के बाद की घट अवस्था में मिट्टी अलग है। (उसी तरह से मिट्टी के घट में) मिट्टी और घट का (सर्वथा) भेद भी नहीं है, क्योंकि मिट्टी की अपेक्षा से अन्वय = A उद्धृतोऽयम्-अनेकान्तवादप्रवेश० पृ. ३१/अनेकान्तजयप० पृ.११९ _B उद्धृतोऽयम् - तत्त्वोप० पृ० ९८ उद्धृतोऽयम् - न्यायावता० वा. वृ पृ. ८८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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