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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन अपेक्षा से उसमें सुख-दुःख आदि उत्पन्न करने के कारण प्रवृत्त्यात्मक स्वभाव तथा मुक्तजीवो की अपेक्षा से निवृत्तिरुप स्वभाव मानते है । इस तरह से एक ही प्रधान में त्रिगुणात्मकता तथा एक ही प्रकृति भिन्नभिन्न जीवो की अपेक्षा से नष्टानष्ट, प्रवृत्ताप्रवृत्त आदि विरुद्धधर्मोवाली माननेवाले सांख्य किस तरह से स्वयं को अनेकांत का विरोधी कह सकते है । एक ही प्रधान में, एक ही प्रकृति में, विरुद्ध धर्मो का स्वीकार ही अनेकांतवाद का समर्थन करता है । २७० / ८९३ मीमांसक स्वयं ही प्रकारान्तर से अनेकादि अनेकांत का स्वीकार करते ही है। इसलिए उनको इस विषय में कोई पर्यनुयोग (पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है । अर्थात् मीमांसको में कुमारिल भट्ट आदि तो स्वयं ही सामान्य और विशेष में कथंचित् तादात्म्य, धर्म और धर्मी में भेदाभेद तथा वस्तु को उत्पादादित्रयात्मक स्वीकार करके अनेकांत को मानते ही है। इसलिए उनको इस विषय की विशेष पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है ।) यद्यपि वे शब्द और अर्थ संबंध को एकांतिक नित्य मानते है । इस विषय में वे भी पूछने योग्य है । (प्रथम इस विषय में मीमांसक का मत बताकर पंक्ति का भावार्थ खोलेंगे। मीमांसक शब्द और अर्थ का नित्यसंबंध मानते है। नोदना - श्रुतिवाक्य को कार्यरुप अर्थ में ही प्रमाण मानते है और उस कार्य को त्रिकालशून्य मानते है । उनका आशय यह है कि वेदवाक्य त्रिकालशून्य शुद्धकार्यरुप अर्थ को ही विषय करता है ।) पंक्ति का भावानुवादः “त्रिकालशून्य कार्यरुप अर्थविषयक ज्ञान उत्पादिका नोदना है ।" इस अनुसार से मीमांसक मानते है (इस विषय में उनको कहना है कि... ) यदि कार्यरुपता त्रिकालशून्य है किसीभी काल में अपनी सत्ता रखती नहीं है। तो वह अभाव प्रमाण का ही विषय बन जायेगी । (उसको आगमगम्य मानना युक्त नहीं है।) यदि वह कार्यरुपता अर्थरुप है, तो प्रत्यक्षादि प्रमाण से ही उसका परिज्ञान हो जायेगा । अर्थात् उस कार्यरुपता में प्रत्यक्षादि प्रमाणो की विषयता आयेगी (इसलिए कार्य को त्रिकालशून्य और अर्थरुप भी मानोंगे, तब ही वह वेदवाक्य का विषय बन सकेगा । अर्थात्) कार्यरुपता में त्रिकालशून्यता तथा अर्थरुपता उभय का स्वीकार करोंगे तब ही वह नोदना वेदवाक्य का विषय बन सकेगी । (इस तरह से मीमांसको ने भी एक कार्यरुपता में उभयधर्मो का स्वीकार करके अनेकांत का ही समर्थन किया है ।) अथ बौद्धादिसर्वदर्शनाभीष्टा दृष्टान्ता युक्तयश्चानेकान्तसिद्धये समाख्यायन्ते - बौद्धादिसर्वदर्शनानि संशयज्ञानमेकमुल्लेखद्वयात्मकं प्रतिजानानानि नानेकान्तं प्रतिक्षिपन्ति १ । तथा स्वपक्षसाधकं परपक्षोच्छेदकं च विरुद्धधर्माध्यस्तमनुमानं मन्यमानाः परेऽनेकान्तं कथं पराकुर्युः ? २ 1 मयूराण्डरसे नीलादयः सर्वेऽपि वर्णा नैकरूपा नाप्यनेकरूपाः, किंत्वेकानेकरूपा यथावस्थिताः, तथैकानेकाद्यनेकान्तोऽपि । तदुक्तं नामस्थापनाद्यनेकान्तमाश्रित्य -“मयूराण्डरसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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