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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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प्रत्यक्ष में भी सकल ऐसे केवलज्ञान का स्वरुप सर्वद्रव्यो और सर्व पर्यायो का साक्षात्कार करना वह है। उससे अन्य पररुप है। उन दोनो के द्वारा (पहले कहे अनुसार से) उसमें भी सत्त्वासत्त्व की विचारणा करना।
इस अनुसार से उत्तरोत्तर भी विशेषधर्मो के स्व-पररुप जाननेवाले पुरुषो के द्वारा स्वयं विचार कर लेना। क्योंकि विशेषधर्म और प्रतिविशेषधर्म अनंता है। (यहाँ स्वयं सोचने की राय देने में ग्रंथकारश्री का आशय यह है कि वे विशेषधर्म और उसके प्रतिविशेषधर्म अनंता होने से यहाँ ग्रंथगौरव के भय से वर्णन करने के लिए संभावना न होने के कारण उपर विचारणा का आंशिक फिर भी पर्याप्त मार्ग दिखा दीया है। इसलिए
अंगुलीनिर्देश करके पूर्ण किया जाता है।) ___ इस अनुसार से धट-पटादि पदार्थों में भी स्व-पररुप की प्ररुपणा करनी चाहिए और स्व-पर की अपेक्षा से सत्त्व और असत्त्व का प्रतिपादन करना चाहिए ।
इस अनुसार से वस्तु के सत्त्व में भी सत्त्वासत्त्व की कल्पना करने पर भी (उससे कोई दोष नहीं आते है। अनेकांत की हानी होती नहीं है। प्रत्युत) अनेकांत का (विशेषतया) प्रकटीकरण ही होता है और इसलिए तादृश मान्यता में कोई भी हानी नहीं है। ___ ननु सत्त्वेऽपि सत्त्वान्तरकल्पने “धर्माणां धर्मा न भवन्ति” इति वचो विरुध्यते । मैवं वोचः । अद्याप्यनभिज्ञो भवान् स्याद्वादामृतरहस्यानां, यतः स्वधर्म्यपेक्षया यो धर्मः सत्त्वादिः स एव स्वधर्मान्तरापेक्षया धर्मी, एवमेवानेकान्तात्मकव्यवस्थोपपत्तेः । ततः सत्त्वेऽपि सत्त्वान्तरकल्पनायां सत्त्वस्य धर्मित्वं, सत्त्वान्तरस्य च धर्मत्वमिति धर्मिण एव धर्मत्वमिति धर्मिण एव धर्माभ्युपगमान्न पूर्वोक्तदोषावकाशः । न चैवं धर्मस्यापि धर्मान्तरापेक्षया धर्मित्वप्राप्त्यानवस्था, अनाद्यनन्तत्वाद्धर्मधर्मिव्यवहारस्य, दिवसरात्रिप्रवाहवत्, बीजाकुरपौर्वापर्यवत्, अभव्यसंसारवद्वा । एवं नित्यानित्यभेदाभेदादिष्वपि वाच्यम् ३। तथा वैयधिकरण्यमप्यसत्"-35, निर्बाधकाध्यक्षबुद्धौ सत्त्वासत्त्वयोरेकाधिकरणत्वेन प्रतिभासनात् । न खलु तथाप्रतिभासमानयोवैयधिकरण्यं, एकत्र फले रूपरसयोरपि तत्प्रसङ्गात् ४ । संकरव्यतिकरावपिG-36 मेचकज्ञानदृष्टान्तेन निरसनीयौ । यथा मेचकज्ञानमेकमप्यनेकस्वभावं, न च तत्र संकरव्यतिकरौ, एवमत्रापि । किं च यथाऽनामिकाया युगपन्मध्यमाकनिष्ठिकसंयोगे ह्रस्वदीर्घत्वे न च तत्र संकरादिदोषपोषः एवमत्रापि ६ । तथा यदप्यवादि “जलादेरप्यनलादिरूपता” इत्यादि, तदपि महामोहप्रमादिप्रलपितप्रायं, यतो जलादेः स्वरुपापेक्षया जलादिरूपता न पररूपापेक्षया, न ततो जलार्थिनामनलादौ प्रवृत्तिप्रसङ्गः, स्वपरपर्यायात्मकत्वेन सर्वस्य सर्वात्मकत्वाभ्युपगमात्, अन्यथा वस्तुस्वरूपस्यैवाघटमानत्वात् । किं च, भूतभविष्यद्गत्या
(G-35-36)- तु० पा० प्र० प० ।
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