SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८/८७१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन प्रति शंका : इस प्रकार मानने से अनंतधर्म माननेरुप अनवस्था आयेगी। प्रति समाधान : ऐसी स्थिति में भी अनवस्था दोष बताना निरर्थक ही है। क्योंकि वह अनवस्था = अनंताधर्मो की कल्पना तो (अनेकांत की साधक होने से) अनेकांत की भूषण है। दूषण नहीं है। क्योंकि तादृश अनंतधर्मो की कल्पनारुप अनवस्था मूल अनेकांत के सिद्धांत की हानी करती नहीं है। परंतु उल्टा अनेकांत की मान्यता को उद्दीपन करने में सहायक बनती है। जो कल्पनाओं की परंपरा ये मूलवस्तु की हानी करे, वही कल्पनाओ की परंपरारुप अनवस्था दूषणरुप है। जिससे कहा भी है कि... अनवस्था दूषण मूल वस्तु की हानी करनेवाला है । (क्योंकि उससे मूल वस्तु का लोप हो जाता है ।) वस्तु के अनंतधर्मो की विचारणा में (हमारी बुद्धि समर्थ न होने से) ऐसी अशक्ति में भी (वस्तु की विचारणा में अनंता धर्मो की जो प्रामाणिक कल्पना की जाती है, तद्रूप) अनवस्था का निवारण नहीं हो सकता है। अर्थात् तादृश अनवस्था होने पर भी उसका निराकरण नहीं किया जा सकता। परंतु तादृश अनव की अनेकांतात्मकता को सिद्ध करने में साधक होने से दूषणरुप नहीं है,) भूषणरुप है। इसलिए जैसे जैसे सत्त्व में भी सत्त्वासत्त्व की कल्पना की जाती है वैसे वैसे अनेकांत का उद्दीपन होता है। वस्तु की अनेकान्तता प्रकट होती जाती है। परंतु मूल वस्तु की हानी होती नहीं है . (अनेकांतता की उद्दीपक अनवस्था किस तरह से भूषणरुप है और दूषणरुप नहीं है, वह अब बताया जाता है।) सर्व पदार्थों में स्वरुप से सत्त्व और पररुप से असत्त्व है। वे सभी पदार्थो में से) आत्मा में सामान्यतः ज्ञान-दर्शनरुप उपयोग ही स्वरुप है। क्योंकि जीव का (असाधारण) लक्षण उपयोग है। उस उपयोग से भिन्न अनुपयोग (कि जो अचेतन का स्वरुप है, वह चेतन ऐसे) जीव का पररुप है। (यह उपयोग और अनुपयोग से सत्त्व और असत्त्व का विचार किया जाता है तब) आत्मा में उपयोग की अपेक्षा से सत्त्व और अनुपयोग की दृष्टि से असत्त्व प्रतीत होता है। (आत्मा का उस) उपयोग में भी विशेषत: ज्ञानोपयोग का स्वरुप है स्व और अर्थ का निश्चय करना वह और दर्शनोपयोग का स्वरुप है निराकार सामान्य आलोचन करना वह । उससे विपरीत धर्म पररुप होगा। इसलिए उन दोनो के द्वारा उसमें भी सत्त्व और असत्त्व का विचार करना । ज्ञान में भी परोक्ष का स्वरुप अस्पष्टज्ञान और प्रत्यक्ष का स्वरुप स्पष्टज्ञान है। दर्शन में भी चक्षुदर्शन का स्वरुप चक्षुरिन्द्रिय से होनेवाले ज्ञान के पहले पदार्थ का सामान्य अवलोकन करना वह है और अचक्षुदर्शन का स्वरुप चक्षु से भिन्न इन्द्रियो के द्वारा होनेवाले ज्ञान के पहले पदार्थ का सामान्य अवलोकन करना वह है। अवधिदर्शन का स्वरुप भी अवधिज्ञान के पहले मर्यादा में (रुपी द्रव्यो का) सामान्यतः प्रतिभास करना वह है। यह ज्ञान और दर्शन के स्वरुप हुए । उससे अन्य धर्म वह पररुप है। इसलिए उसमें भी वे दो के द्वारा सत्त्वासत्त्व का विचार करना । परोक्ष में भी मतिज्ञान का स्वरुप इन्द्रिय - अनिन्द्रिय द्वारा स्व और अर्थ का प्रतिभासन करना वह है। श्रुतज्ञान का स्वरुप अनिन्द्रियमात्र निमित्तक है - अर्थात् अनिन्द्रिय (मन) द्वारा होना वह है। प्रत्यक्ष में भी विकल ऐसे अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान का स्वरुप मन और इन्द्रिय से निरपेक्षरुप से स्व और अर्थ का स्पष्टतया प्रतिभास करना है। अर्थात् मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना उस उस कर्म के क्षयोपशम से आत्मा को स्पष्टतया होता स्व और अर्थ का ज्ञान । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy