SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२/८६५ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन अप्रमाणिकधर्मो की कल्पना करने से अनवस्था दोष आता है। इस तरहसे नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष आदि में सोच लेना। ___ (४) सत्त्वधर्म का अधिकरण अन्य है और असत्त्वधर्म का अधिकरण अन्य है, क्योंकि जिसमें सत्त्व है, उसमें असत्त्व नहीं है, परंतु उससे अन्य में ही असत्त्व होता है। इसलिए दूषण आता है। (दो विरोधिधर्म एक अधिकरण में रह सकते नहीं है, उस अपेक्षा से यह दोष दिया है।) (५) (आप जैन लोग वस्तु के सत्त्व और असत्त्व दोनो धर्मो को कथंचित् अभिन्न तादात्म्य मानते हो इसलिए) जो स्वरुप से वस्तु में सत्त्व है, उसी स्वरुप से वस्तु में सत्त्वासत्त्व होगा। क्योंकि आप वस्तु के सत्त्व और असत्त्व धर्मो को कथंचित् अभिन्न मानते हो । इसलिए वस्तु में दोनो धर्मो की एकसाथ प्राप्ति होने के कारण संकर दोष आता है। इसलिए कहा भी है कि... "एक साथ उभय धर्मो की प्राप्ति को संकर कहा जाता है।" ___ (६) (आप जैन लोग वस्तु के सत्त्व और असत्त्व दोनो धर्मो को कथंचित् अभिन्न मानते होने से) जो स्वरुप से वस्तु में सत्त्व होगा उसी स्वरुप से वस्तु में असत्त्व होगा ही। तथा जो स्वरुप से वस्तु में असत्त्व होगा, उस स्वरुप से वस्तु में सत्त्व भी होगा ही। इससे व्यतिकर दोष आयेगा । क्योंकि कहा है कि "एकदूसरे के विषय में गमन करना वह व्यतिकरदोष है।" अर्थात् सत्त्व के विषय में असत्त्व और असत्त्व के विषय में सत्त्व (उपर कहे अनुसार से) पहुंच जाता है। इसलिए स्पष्ट रुप से व्यतिकर दोष आता है। (७) तथा सर्व वस्तुओ को अनेकान्तात्मक स्वीकार करने में अर्थात् सर्ववस्तुओ में अनेकधर्मो का स्वीकार करने मे जलादि भी अग्नि आदिरुप बन जायेंगे और इससे जलका अर्थी अग्नि आदि में भी प्रवृत्ति करेगा और अग्नि का अर्थी जलादि में भी प्रवृत्ति करेगा। उससे (जलादि का अर्थी जलादि में ही प्रवृत्ति करता है और अग्नि आदि का अर्थी अग्नि आदि में ही प्रवृत्ति करता है । ऐसे) प्रतिनियत लोकव्यवहार का अपलाप हो जायेगा।) (८) उस अनुसार से वस्तु की अनेकान्तात्मकता को सिद्ध करने के लिए किसी भी प्रत्यक्षादि प्रमाणो की सहायता मिलती नहीं है। परंतु उसमें वे प्रमाण बाधा ही देते है। इसलिए प्रमाणबाधा नामका दोष भी आता है। (९) वस्तु की अनेकान्तात्मकता में प्रमाणबाधा होने से तादृशवस्तु किसी भी प्रमाण का विषय बनती नहीं है। जो वस्तु प्रमाण का विषय न बनती हो, उस वस्तु का जगत में संभव ही नहीं है। क्योंकि जो वस्तु जगत में विद्यमान होती है, वह वस्तु कोई-न-कोई प्रमाण का विषय अवश्य बनती ही है। इसलिए तादृशवस्तु का असंभव होने से तादृशवस्तु के स्वीकार में असंभव दोष भी आता है। अत्रोच्यते । यदेव सत्तदेव कथमसदित्यादि यदवादि वादिवृन्दवृन्दारकेण तद्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy