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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २२९/८५२ चलेगी और अनवस्था दूषण आयेगा। ___ यदि उत्पाद, व्यय और स्थिति, अन्य उत्पादादि की अपेक्षा बिना स्वतः ही सत् है, तो समस्तपदार्थ भी स्वतः ही सत् बनते है। वे पदार्थो में भी उत्पादादि से सत्त्व की कल्पना करना निरर्थक है। समाधान : हम लोग (पदार्थ से) भिन्न ऐसे उत्पाद, लय और स्थिति के योग से पदार्थ की सत्ता का स्वीकार करते नहीं है। परंतु उत्पादादित्रययोगात्मक ही सत्ता का स्वीकार करते है। (अर्थात् हम लोग पदार्थ स्वतंत्र है और उत्पादादि तीन (पदार्थ से भिन्न =) स्वतंत्र है और घट में पानी के संयोग की तरह उत्पादादि से पदार्थ में सत्ता आ जाती है, ऐसा हम मानते नहीं है। परंतु उत्पाद, लय और स्थिति, ये तीनो का योग - तादात्म्य ही वस्तु है और वह सत् है। उत्पादादि पृथक् और वस्तु पृथक् है वैसा नहीं है।) जैसे कि पृथ्वी, पर्वतादि सभी वस्तु द्रव्य की दृष्टि से उत्पन्न होती नहीं है या नष्ट होती नहीं है। क्योंकि उसमें पुद्गल द्रव्य का परिस्फुट अन्वय (सदा होनेपन रुप अन्वय) देखने को मिलता है। (यदा एक सिद्धांत याद रखना कि किसी भी असत् द्रव्य की उत्पत्ति होती नहीं है और किसी भी सत् पदार्थ का अत्यंत नाश होता नहीं है, बल्कि रुपांतर अवश्य होते रहते है। इसलिए कोई भी वस्तु का उत्पाद या अत्यंत लय तो हो सकता ही नहीं है।) शंका : काटे गये और पुनः उत्पन्न हुए नाखून, बाल आदि में अन्वय के दर्शन द्वारा व्यभिचार आता है । कहने का मतलब यह है कि आपने उपर वस्तु में होते परिस्फुट अन्वय के कारण उत्पत्ति और विनाश का निषेध किया है वह योग्य नहीं है। क्योंकि काटे गये नाखून और बाल में "ये वही नाखून या बाल है।" ऐसे अन्वय के दर्शन होते होने पर भी नाखून और बाल की उत्पत्ति और विनाश भी होता ही है। इसलिए अन्वयदर्शन से उत्पत्ति-विनाश का निषेध किया वह लेशमात्र उचित नहीं है। समाधान : ऐसा नहि कहना चाहिए । क्योंकि प्रमाण से बाध होता अन्वय परिस्फुट होता नहीं है। कहने का मतलब यह है कि आपने हमारे हेतु को ध्यान से निहारा (देखा) नहीं है। हमने परिस्फुट अन्वय को हेतु बनाया है। जो अन्वय किसी भी प्रमाण से बाधित न हो वह अन्वय परिस्फुट कहा जाता है और जो अन्वय प्रमाण से बाधित हो उसे अपरिस्फुट कहा जाता है। (आपने व्यभिचार देते वक्त नाखून और बालरुप द्रव्य का उदाहरण दिया था।) उसमें तो सदृश नाखून और बाल के “ये वही है" ऐसे एकत्व के भान से असत्यअन्वय मालूम होता है। परंतु हमारा प्रस्तुत अन्वय प्रमाण विरुद्ध नहीं है। इसलिए परिस्फुट अन्वय है। पृथ्वी आदि में द्रव्यरुप से दिखाई देता अन्वय किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं है। बल्कि सत्य प्रत्यभिज्ञान द्वारा “यह वही पुद्गल है" इत्यादि अन्वय निर्बाधरुप से अनुभव में आते है। इसलिए कहा भी है कि "सर्वपदार्थों में नियतरुप से प्रतिक्षण अन्वयत्व का अनुभव होता है, परंतु विशेष नहि। क्योंकि अपचय और उपचय होने पर भी आकृति, जाति और द्रव्य की सत्ता स्थिर रहती है। (अर्थात् सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिवतित हो रहे है, वे जो पहले के समय में थे, वह दूसरे समय में रहते नहीं है। और वे प्रतिक्षण परिवर्तित होने पर भी सर्वथा भेद या विनाश होता नहीं है। उपचय और अपचय होने पर भी आकृति, जाति, द्रव्य की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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