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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन २२७/८५० से) स्व-पर का निर्णायकज्ञान परोक्ष जानना । परोक्षज्ञान भी स्वसंवेदन की अपेक्षा से प्रत्यक्ष ही है। परंतु बाह्यार्थ की अपेक्षा से परोक्ष के रुप में व्यपदेश को प्राप्त करता है। यही बात बताते हुए "ग्रहणेक्षया" पद का श्लोक में ग्रहण किया है। (कहने का मतलब यह है कि, परोक्ष ज्ञान भी स्वसंवेदन की अपेक्षा से प्रत्यक्ष ही होता है। क्योंकि सभी स्वरुपसंवेदी होने के कारण स्वरुप में प्रत्यक्ष होते है। अर्थात् आत्मा में परोक्ष ज्ञान हो या संशयज्ञान हो, उसके स्वरुप का प्रत्यक्ष तो हो ही जाता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि, ज्ञान उत्पन्न हो जाये, परंतु उसका प्रत्यक्ष न हो । ज्ञान तो दीपक की तरह अपने स्वरुप को प्रकाशित करता ही उत्पन्न होता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष की संज्ञा तो बाह्यपदार्थ को स्पष्ट या अस्पष्ट से जानने के कारण प्राप्त होती है। इस बात का सूचन करने के लिए "ग्रहणेक्षया" पद श्लोक में दिया है। अर्थात् वह ज्ञान बाह्यार्थ की अपेक्षा से परोक्ष है।) श्लोक में सूचित किये गये "ग्रहणेक्षया" पद के ग्रहण शब्द का अर्थ इस प्रत्यक्ष के प्रस्ताव में इस ज्ञान को बाह्यार्थ में प्रवृत्ति करने का है, परंतु स्वरुपमात्र को जानने का नहीं है। क्योंकि स्वरुपग्रहण की अपेक्षा से तो सर्वज्ञान स्पष्ट और प्रत्यक्ष होने से कोई भी ज्ञान के व्यवच्छेद का अभाव होने के कारण "अपरोक्षतया" विशेषण व्यर्थ बन जायेगा। (अर्थात् सर्वज्ञान स्वरुप ग्रहण की अपेक्षा से स्पष्ट और प्रत्यक्ष होने के कारण उसकी अपेक्षा से कोई भी ज्ञान परोक्ष नही बन सकेगा, उसके योग से प्रत्यक्ष के प्रस्ताव में परोक्ष ज्ञान के व्यवच्छेद के लिए दिया गया "अपरोक्षतया" विशेषण व्यर्थ बन जायेगा । और उस विशेषणपद की सार्थकता तब ही होगी कि, जब कोई ज्ञान परोक्षतया अर्थग्राहक बनता हो, उसके व्यवच्छेद के लिए उसका प्रयोग किया हुआ हो, इसलिए) ग्रहण बाह्य पदार्थो में प्रवृत्ति की इक्षा-अपेक्षा से पदार्थो का अस्पष्टरुप से निश्चय करनेवाला ज्ञान परोक्ष है। (सारांश में) ग्रहणेक्षा का अर्थ बाह्यपदार्थो में प्रवृत्ति का विचार या अपेक्षा है। इसलिए तात्पर्यार्थ इस अनुसार से होगा कि "यद्यपि परोक्ष स्वसंवेदन की अपेक्षा से प्रत्यक्ष है, तो भी बाह्य पदार्थरुप लिंग (हेतु ) या शब्द आदि द्वारा बहिर्विषय के ग्रहण में अस्पष्टतया प्रवर्तित होता है।अर्थात् बाह्यार्थरुप लिंग या शब्दादि द्वारा बाह्यार्थ को अस्पष्टरुप से जानता है। इसलिए परोक्ष कहा जाता है। सारांश में परोक्षज्ञान बाह्यार्थ की अपेक्षा से ही होता है।" ॥५६॥ अथ प्रागुक्तामेव वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकतां दृढयन्नाह - अब वस्तु की पहले कही हुई अनंतधर्मात्मकता को दृढ करते हुए कहते है कि - (मू. श्लो.) येनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंG-22 यत्तत्सदिष्यते । __ अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः ।।५७।। श्लोकार्थ : जिस कारण से उत्पाद, व्यय और ध्रुवतावाली वस्तु ही सत् होती है; उस कारण से (पहले) अनंतधर्मात्मक वस्तु को प्रमाण बताया है। (अर्थात् उत्पत्ति-स्थिति और लय, ये तीन परिणामवाली वस्तु ही "सत्" है। इसलिए ही अनंतधर्मात्मक वस्तु को प्रमाण का विषय कही गई है।) (G-22)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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