________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५५, जैनदर्शन
अनंत द्रव्यो की अपेक्षा से घट में स्थूलता, कृशता, समानता, विषमता, सूक्ष्मता, बादरता, तीव्रता, चाकचिक्यता (चमकनापन ) सौम्यता, पृथुता, संकीर्णता, नीचता, उच्चता, विशालमुखता इत्यादि प्रत्येकधर्मो की अपेक्षा से अनंताधर्म होते है । कहने का मतलब यह है कि, उस घट में किसी द्रव्य की अपेक्षा
स्थूलता, किसी द्रव्य की अपेक्षा से कृशता, किसीकी अपेक्षा से समानता, किसी की अपेक्षा से विषमता... इस प्रकार उपर बताये हुए अनेक धर्म रहे हुए है। इसलिए घट के अनंता स्वधर्म है । सारांश में स्थूलता आदि के द्वार से (स्थूलता आदि धर्मो के द्वार से सोचने से भी) घट के अनंताधर्म है।
२९३/८३६
सम्बन्धतस्त्वनन्तकालेनानन्तेः परैर्वस्तुभिः समं प्रस्तुतघटस्याधाराधेयभावोऽनन्तविधो भवति, ततस्तदपेक्षयाप्यनन्ताः स्वधर्माः । एवं स्वस्वामित्वजन्यजनकत्वनिमित्तनैमित्तिकत्वषोढाकारकत्वप्रकाश्यप्रकाशकत्वभोज्यभोजकत्ववाह्यवाहकत्वाश्रयाश्रयिभाववध्यवधकत्वविरोध्य
विरोधकत्वज्ञेयज्ञापकत्वादिसङ्ख्यातीतसम्बन्धैरपि प्रत्येकमनन्ता धर्मा ज्ञातव्याः । तथा ये येऽत्र घटस्य स्वपरपर्याया अनन्तानन्ता ऊचिरे, तेषामुत्पादा विनाशाः स्थितयश्च पुनः पुनर्भवनेनानन्तकालेनानन्ता अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च तदपेक्षयाप्यनन्ता धर्माः । एवं पीतवर्णादारभ्य भावतोऽनन्ता धर्माः ।
व्याख्या का भावानुवाद :
संबंधत: घट की विवक्षा करने से अनंतकाल की अपेक्षा से अनंता पर-पदार्थो के साथ प्रस्तुत घट का आधार-आधेयभाव अनंतप्रकार का होता है । अर्थात् अनंतकाल की अपेक्षा से सोचे तो घट अनंतीबार आधार या आधेय बना होगा । इसलिए घट के आधार - आधेयभाव अनंत प्रकार के होते है । इसलिए अनंतकाल की अपेक्षा से आधार - आधेयभाव की दृष्टि से भी घट के अनंता स्वधर्म है।
इस अनुसार से स्व-स्वामित्व, जन्य - जनकत्व, निमित्त - नैमित्तिकत्व, पानी लाना आदि पदार्थो से कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान आदि छः कारकरुप संबंध, प्रकाश्य - प्रकाशकत्व, भोज्य- भोजकत्व, वाह्यवाहकत्व, आश्रय-आश्रयिभाव, वध्य- वधकत्व, विरोध्य-विरोधकत्व, ज्ञेय - ज्ञापकत्व, इत्यादि संख्यातीत संबंधो के द्वारा भी प्रत्येक के अनंताधर्मो को जानना । कहने का मतलब यह है कि.... सुवर्ण के घट का अपने स्वामि के साथ स्वस्वामिसंबंध, घट उत्पन्न करनेवाले सुवर्णकार (सुनार) के साथ जन्य - जनकभाव संबंध, उस घट के स्वामि में यह धनवान है ऐसे व्यवहार में निमित्त होने से अथवा कुंओमें से पानी खिंचने में निमित्त होने से उसके साथ निमित्त - नैमित्तिकभाव संबंध, कोई पानी आदि लाने के पदार्थो से कर्ता, कर्म, करण आदि छः कारकरुप संबंध, दीपक आदि से प्रकाश्य - प्रकाशकभाव संबंध, जिसके उपभोग में आता है, उस भोक्ता से भोज्य-भोजकभाव संबंध, वह पानी दूध आदि पदार्थो को लाने में मददरुप होने से उसके साथ वाह्य-वाहकभाव संबंध, जिसको स्थान के उपर रखा जाता है या उसमें जो चीज रखी जाती है उससे आश्रय-आश्रयि (आधार - आधेय) भाव संबंध, जो घडे को तोडता है या वह घट किसीको मस्तकके उपर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org