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________________ २१२/८३५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन होने से हान-उपादान और उपेक्षा का विषय बनता होने से, इच्छा का विषय बनता होने से पुण्य पाप कर्मबंध का कारण बनता होने से, क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-मोहादि-विकारो को (उपाधियों को) उत्पन्न करने में मूलभूतद्रव्य बनता होने से आलोटन, पतन, भ्रमण आदि तथा पतनादि का कारण बनता होने से अथवा सुखादि का कारण बनता होने से, घट के अनंतधर्म होते है। अर्थात् घट अनंतधर्मात्मक है। कहने का मतलब यह है कि सर्वजीवो की अपेक्षा से किसीको घट अल्पसुख का कारण है, तो किसीको ज्यादा सुख का कारण बनता है। किसीको अति-अति सुख का कारण बनता है, किसीको दुःख का कारण बनता है। किसीको त्याज्य (छोडनेका) विषय बनता है, किसीको ग्राह्य (ग्रहण) करने में, तो किसीकी उपेक्षा का विषय बनता है, किसीकी इच्छा का आलंबन बनता है, तो किसीके पुण्य-पापकर्म बंध में निमित्त बनता है । किसीके चित्त में सत्संस्कार पैदा करता है तो किसीके चित्त में असत् संस्कारो को पैदा करता है, । किसीको क्रोध, किसीको मान, किसीको माया, किसीको लोभ, किसीको राग-द्वेष-मोह पैदा कराता है। किसीको नीचे गिराता है । इत्यादि का कारण बनता होने से घट के अनंतधर्म है। स्नेह और गुरुत्व पहले बताये गये स्पर्श के ही भेद होने से उसकी अपेक्षा से स्व-पर धर्म कहे ही गये है। कर्म (क्रिया) की अपेक्षा से घट के अनंता क्रियारुप स्व-धर्म है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, भ्रमण, स्यंदन, रेचन, पूरण, चलन, कंपन, अन्य स्थान प्रापण, जलाहरण, जलादिधारण आदि अनंतक्रियाओं का घट उस उस काल के भेद से अथवा तरतमता के योग से कारण होने के कारण घट के अनंताक्रियारुप स्व-धर्म है। कहने का आशय यह है कि सुवर्ण का घट उंचे फेंक सकते है, नीचे फेंक सकते है; घट को आकार दिया जा सकता है, यहां वहां ले के जाया जा सकता है। इत्यादि असंख्य क्रियायें घटमें होती है। इसलिए असंख्यक्रियाओं का घट कारण होने से वे उसके स्वधर्म है। अर्थात् अनेक स्वभाववाला है। क्रिया के तीनो काल की अपेक्षा से तथा धीरे से जोर से मध्यमरुप से ऐसे तरतमता की अपेक्षा से अनंतभेद हो सकते है। इसलिए घट वह क्रियाओं का हेतु होने से उसके अनंता स्व-धर्म है। उस क्रियाओ में अहेतुभूत अन्य अनंता द्रव्यो से घट की व्यावृत्ति होती होने से घट के पर-धर्म भी अनंता है। वैसे ही, सामान्य ( सादृश्य ) की अपेक्षा से पहले कही हुई नीति अनुसार अतीतादि कालो में जो जो जगत के पदार्थो के अनंता स्व-पर पर्याय होते है। उसमें अन्य पदार्थो से भी घट की एक, दो आदि अनेक धर्मो के द्वारा समानता मिल सकती है। इसलिए सादृश्यरुप सामान्य की अपेक्षा से घट में स्व-पर्याय सोचने चाहिए। __विशेषतः घट का विचार करे तो घट अनंत द्रव्यो में रहे हुए अपर-अपर धर्म की अपेक्षा से एक, दो, तीन.... यावत् अनंत धर्मो से विलक्षण है। इसलिए घट में अनंत पदार्थो से विलक्षणता सिद्ध करने में कारणभूत अनंताधर्म विद्यमान है। वे सभी घट के स्व-धर्म है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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