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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन विवक्षा की जाती है, तब वह घट पौद्गलिकद्रव्यत्वेन विद्यमान है, परंतु धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकायद्रव्यत्वेन विद्यमान नहीं है। ( कहने का मतलब यह है कि, जब द्रव्यतः घट का विचार किया जाता है, तब पुद्गलद्रव्य की अपेक्षा से घट विद्यमान (सत्) है और धर्मास्तिकायादि अन्यद्रव्यो की अपेक्षा से अविद्यमान (असत्) है। इसलिए) यहाँ घट का पौगलिकत्वधर्म स्व-पर्यायरुप है और धर्मादि अनंतद्रव्यो की व्यावृत्ति होने के कारण धर्मास्तिकायादि अनंत पर्याय घट के पर-पर्याय बन जाते है। अर्थात् द्रव्यतः घट का स्वपर्याय पौगलिकत्व है और धर्मास्तिकायादि पर पर्याय अनंता है। क्योंकि (पुद्गल से अतिरिक्त पांच द्रव्यो में से) जीवद्रव्य अनंत है। अर्थात् जीव अनंता होने के कारण घट के लिए वे अनंता पर्याय पर पर्याय बन जाते है। (इस तरह से एक पौद्गलिकत्व विशेषधर्म की अपेक्षा से घट के अनंतपर्यायो की सिद्धि होती है। अर्थात् घट अनंतधर्मात्मक सिद्ध होता है।) (अब उस दिशा में आगे सोचने से दूसरे एक अवांतर विशेषधर्म की अपेक्षा से घट अनंतधर्मात्मक सिद्ध किया जाता है ।) २०४ / ८२७ (पृथ्वी, पानी आदि अनंता पुद्गलो होने पर भी) वह सुवर्ण का (सोने का) घट पार्थिवत्वेन विद्यमान है, परंतु जलत्वादि धर्मो की अपेक्षा से विद्यमान नहीं है। इसलिए घट के लिए पार्थिवत्व स्व पर्याय है, परंतु जलत्वादि बहोत द्रव्यो की व्यावृत्ति होती है । अर्थात् जलत्वादि धर्म पर-पर्याय बन जाते है । इसलिए जलत्वादि धर्मो की अपेक्षा घट के पर-पर्याय अनंता है। (इस तरह से भी घट स्व-पर पर्यायो की अपेक्षा से अनंतधर्मात्मक सिद्ध होता है।) इस तरह से आगे भी घट के स्व-पर पर्यायो को जानना । (अब दूसरे एक अवांतर विशेषधर्म की अपेक्षा से सुवर्ण के घट की अनंतधर्मात्मकता का विचार किया जाता है ।) पार्थिव वह घट भी धातुरुप में विद्यमान है, परंतु मृत्त्वादि धर्मो की अपेक्षा से अविद्यमान है। अर्थात् धातुरुप से सत् है, मिट्टी आदि पर्यायो की अपेक्षा से असत् है। (यहाँ पार्थिव घट का धातुरुप पर्याय स्व है और मिट्टीरुप अनंता पर्याय पर है। इसलिए पार्थिव घट भी अनंतधर्मात्मक सिद्ध होता है। (अब अवांतर - अवांतर विशेषधर्मो की अपेक्षा से घट की अनंतधर्मात्मकता सिद्ध की जाती है ।) धातुरूप भी वह घट सौवर्णत्वेन (सुवर्णपन से) विद्यमान (सत्) है, परंतु राजतत्वादि (रजतादिपन-चांदीपन) से अविद्यमान (असत्) है। वह सुवर्णघट भी घटित (घडे हुओ) सुवर्णात्मकत्वेन सत् है । अर्थात् सुवर्ण का वह घट घडे हुए सुवर्णरूप से सत् है । परंतु नहीं घडे हुए सुवर्ण आदि रुप से असत् है । घडा हुआ सुवर्णरुप घट भी देवदत्त के द्वारा घडे हुए के रुप में सत् है । यज्ञदत्त आदि सुनारो के द्वारा घडे हुए के रुप में असत् है । घडा हुआ घट भी पृथुबुध्नादि आकार से सत् है । मुकुटादि आकार से असत् है । पृथुबुध्नादि आकारवाला घट भी वृत्ताकार से (गोल आकार से) सत् है, परंतु अवृत्ताकार से असत् है । वृत्ताकारघट भी स्वाकार से सत् है, परंतु अन्यघटादि आकार से असत् है । स्व-आकारवाला घट भी स्व-दलिको से सत् है, परंतु परदलिको से असत् है। इस तरह से इस दिशा अनुसार दूसरे जिस जिस पर्यायो के द्वारा घट की विवक्षा की जाये, उस उस पर्याय उसके स्व-पर्याय है । परन्तु उससे अन्य पर पर्याय है। इसलिए इस अनुसार द्रव्यत: घट के स्व-पर्याय स्तोक (अल्प) है। परंतु व्यावृत्तिरुप पर पर्याय अनंता For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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