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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
२०३/८२६
तथाहि-स घटो यदा सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिधर्मंश्चिन्त्यते तदा तस्य सत्त्वादयः स्वपर्याया एव सन्ति, न तु केचन परपर्यायाः, सर्वस्य वस्तुनः सत्त्वादीन्धर्मानधिकृत्य सजातीयत्वाद्विजातीयस्यैवाभावान्न कुतोऽपि व्यावृत्तिः । द्रव्यतस्तु यदा पौद्गलिको घटो विवक्ष्यते, तदा स पौगलिकद्रव्यत्वेनाऽस्ति, धर्माधर्माकाशादिद्रव्यत्वैस्तु नास्ति । अत्र पौद्गलिकत्वं स्वपर्यायः, धर्मादिभ्योऽनन्तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन परपर्याया अनन्ताः, जीवद्रव्याणामनन्तत्वात् । पौद्गलिकोऽपि स घट: पार्थिवत्वेनाऽस्ति न पुनराप्यादित्वैः, अत्र पार्थिवत्वं स्वपर्यायः, आप्यादिद्रव्येभ्यस्तु बहुभ्यो व्यावृत्तिः ततः परपर्याया अनन्ताः । एवमग्रेऽपि स्वपरपर्यायव्यक्तिर्वेदितव्या । पार्थिवोऽपि स धातुरूपतयास्ति न पुनर्मृत्त्वादिभिः । धातुरूपोऽपि स सौवर्णत्वेनाऽस्ति न पुना राजतत्वादिभिः । सौवर्णोऽपि स घटितसुवर्णात्मकत्वेनाऽस्ति नत्वघटितसुवर्णात्मकत्वादिना । घटितसुवर्णात्मापि देवदत्तघटितत्त्वेनाऽस्ति नतु यज्ञदत्तादिघटितत्वादिना । घटितोऽपि पृथुबुनाद्याकारेणाऽस्ति न पुनर्मुकुटादित्वेन । पृथुबुध्नोदराद्याकारोपि वृत्ताकारेणास्ति नावृत्ताकारेण । वृत्ताकारोपि स्वाकारेणास्ति न पुनरन्यघटाद्याकारेण । स्वाकारोऽपि स्वदलिकैरस्ति न तु परदलिकैः । एवमनया दिशा परेणापि स येन येन पर्यायेण विवक्ष्यते स तस्य स्वपर्यायः, तदन्ये तु परपर्यायाः । तदेवं द्रव्यतः स्तोकाः स्वपर्यायाः, परपर्यायास्तु व्यावृत्तिरूपा अनन्ता, अनन्तेभ्यो द्रव्येभ्यो व्यावृत्तित्वात् ।। व्याख्या का भावानुवाद :
"विवक्षित घट स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से विद्यमान है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से अविद्यमान है ।" वह इस अनुसार से है - उन घट का जब सत्त्व, ज्ञेयत्व, प्रमेयत्वादि सामान्यधर्मो के द्वारा विचार किया जाता है। तब वह घट के सत्त्वादि स्व-पर्यायो के रुप में ही विद्यमान है। अर्थात् सत्त्वादि सभी घट के स्व-पर्याय ही बन जाते है। उस समय दूसरे कोई परपर्याय रहते नहीं है। क्योंकि सर्ववस्तु सत्त्वादि धर्मो का आश्रय करके सजातीय ही बन जाती है। कोई विजातीय बनती ही नहीं है। इसलिए विजातीय = परपर्यायो का अभाव होने से उसकी व्यावृत्ति करनी नहीं पडती है। (कहने का मतलब यह है कि, सत्त्वधर्म को आगे करके जब विचार किया जाये, तब सर्व सत् ऐसे सचेतन और अचेतनपदार्थो में कोई भेद रहता नहीं है, क्योंकि सत्त्वेन सर्वपदार्थो में अभेद है। उसी ही तरह से प्रमेयत्वेन, अभिधेयत्वेन भी सर्वपदार्थ सजातीय है । इसलिए सत्त्वेन, प्रमेयत्वेन, अभिधेयत्वेन कोई भी पदार्थ विजातीय बनते ही नहीं है। उसके कारण से सत्त्वादि सामान्यधर्मो को आगे करके घट का विचार किया जाये, तब वे स्वपर्याय ही बन जाते है, दूसरे कोई भी परपर्याय रहते नहीं है।)
(अब विशेषधर्मो को आगे करके घट का विचार किया जाता है।) द्रव्यतः जब पौद्गलिकघट की
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