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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग २, श्लोक ५५, जैनदर्शन - वन्ध्यास्तनन्धयः 1 नन्वत्र कीर्त्यन्त इत्यादि । अत्रोदाहरणम् - परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, यः कृतकः स परिणामी दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायम् तस्मात्परिणामी । यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टः, यथा शब्द कृतकश्चायम् तस्मात्परिणामी इत्यादि निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैकं हेतोर्लक्षणमभ्यधायि किं न 1 - " पक्षधर्मत्वादित्रैरूप्यमिति चेत् ? उच्यते, पक्षधर्मत्वादी त्रैरूप्ये सत्यपि तत्पुत्रत्वादेर्हेतोर्गमकत्वादर्शनात् 97, F-98 असत्यपि च त्रैरूप्ये हेतोर्गमकत्वदर्शनात्, तथाहि-जलचन्द्रान्नभश्चन्द्रः, कृतिकोदयाच्छकटोदयः, पुष्पितैकचूततः पुष्पिताः शेषचूताः, शशाङ्कोदयात्समुद्र वृद्धिः, सूर्योदयात्पद्माकरबोधः, F- 99 पक्षधर्मताविरहेऽपि सर्वजनैरनुमीयन्ते कालादिकस्तत्र धर्मी वृक्षाच्छाया चैते समस्त्येवेति चेत् ? न, अतिप्रसङ्गात् "- । एवं हि शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये - काककार्ष्यादेरपि गमकत्वप्रसक्तेः, लोकादेर्धर्मिणस्तत्र कल्पयितुं शक्यत्वात् । -2 अनित्य शब्द: श्रावणात्, मद्भ्राताऽ-यमेवंविधस्वरान्यथानुपपत्तेः, सर्वं नित्यमनित्यं वा सत्त्वादित्यादिषु सपक्षे सत्त्वस्याभावेऽपि गमकत्वदर्शनाच्चेति ४ । F-100 F-95 व्याख्या का भावानुवाद : दृष्टान्त अन्वय और व्यतिरेक के भेद से दो प्रकार का है। जिसमें साधन की सत्ता होने पर ही साध्य की सत्ता अवश्य बताई जाये उसे अन्वयदृष्टान्त कहा जाता है। जिसमें साध्य के अभाव से साधन का अभाव कहा जाता है वह व्यतिरेक दृष्टांत है । १९७ / ८२० (दृष्टांत का कथन करके) हेतु का पक्ष में पुनः उपसंहार करना अर्थात् हेतु की पक्ष में सत्ता पुन: कहना उसे उपनय कहा जाता है। (यहाँ पुन: लिखने का कारण यह है कि हेतुवाक्य के कथन में पक्षधर्मता = पक्ष में हेतु की सत्ता का निर्देश होता है, तब (साध्य और साधन के संबंध को = अविनाभाव के) स्मरण बिना मात्र पक्ष में हेतु को देखने मात्र से हेतु वाक्य का कथन किया जाता है, जबकि उपनय वाक्य में अविनाभाव स्मरणपूर्वक पक्ष में हेतु की सत्ता अर्थात् पक्षधर्मता का कथन किया जाता है । अर्थात् अविनाभाव के स्मरण के बाद पुनः पक्ष में हेतु का निर्देश होता है कि जो निगमनवाक्य के कथन के अभिमुख ले जाता है।) (पक्ष में हेतु की सत्ता का पुनः कथन करके) प्रतिज्ञा का उपसंहार करना उसे निगमन कहा जाता है । अर्थात् पक्ष में साध्य का पुनः निर्देश करना उसे निगमन कहा जाता है । Jain Education International प्रश्न : प्रथम प्रतिज्ञा वाक्य और अंतिम निगमनवाक्य में क्या फर्क है वह समज में नहीं आता है। क्योंकि दोनो का आकार एक समान ही है । अर्थात् प्रतिज्ञावाक्य और निगमनवाक्य का "पक्षः साध्यमान् " (F-95-96-97-98-99-100) (G-1-2) - तु० पा० प्र० प० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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