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________________ १९६/८१९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन या स्मरण के सहकार से आगम जन्य जो कोई संकलनात्मकज्ञान है, उसका समावेश प्रत्यभिज्ञान में कर लेना। (३) तर्कप्रमाण : उपलंभ या अनुपलंभ से उत्पन्न होनेवाला त्रिकालविषयक (त्रिलोकवर्ती) सभी साध्य-साधन के संबंध का आलंबन = विषय करनेवाले "यह यह होने पर ही होता है"-इत्याकारक संवेदन -- ज्ञान को तर्क कहा जाता है। अर्थात् “साध्य होने पर ही साधन होता है।" और "साध्य के अभाव में साधन होता नहीं है।" इत्याकारक ज्ञान को तर्क कहा जाता है। जैसे कि अग्नि होने पर ही धूम होता है। अग्नि के अभाव में धूम होता ही नहीं है। इस तरह से साधारणरुप से त्रिलोकवर्ती समस्त अग्नि और धूमो के अविनाभाव संबंध को तर्क प्रमाण जान लेना। ___ (४) अनुमानप्रमाण : (साधन से होते सांध्य के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है।) वह अनुमान दो प्रकार का है। (१) स्वार्थानुमान, (२) परार्थानुमान । हेतु का ग्रहण तथा संबंध (अविनाभाव) स्मरण से होनेवाले साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहा जाता है। निश्चित अन्यथा अनुपपत्तिरुप एकमात्र लक्षणवाले पदार्थ को हेतु कहा जाता है। ___ इष्ट, अबाधित, असिद्ध लक्षणवाले पदार्थ को साध्य कहा जाता है। अर्थात् जिसको सिद्ध करना वादि को इष्ट है, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणो से बाधित नहीं है और आज तक जो प्रतिवादि को असिद्ध है अथवा जिसकी पक्ष में सिद्धि संदिग्ध है, उसे साध्य कहा जाता है। साध्यविशिष्ट प्रसिद्ध धर्मी को पक्ष कहा जाता है। अर्थात् साध्ययुक्त धर्मी पक्ष कहा जाता है। धर्मी प्रसिद्ध होता है। पक्ष और हेतु का (दूसरे के ज्ञान के लिए) कथन करना उसे अर्थात् पक्ष-हेतु वचनात्मक (साध्य के ज्ञान को) उपचार से परार्थानुमान कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि पक्ष और हेतु के वचन = कथन को सुनकर श्रोता को होनेवाला साध्य का ज्ञान को, परार्थानुमान कहा जाता है । यद्यपि मुख्यरुप से तो परार्थानुमान ज्ञानात्मक ही होता है, फिर भी जो वचनो से वह ज्ञान उत्पन्न होता है, उस वचनो को भी कारण में कार्य का उपचार करके अर्थात् कार्यभूत ज्ञान के कारणभूत वचनो में उपचार करके परार्थानुमान कहा जाता है। सारांश में, पक्ष और हेतु के कथन को उपचार से परार्थानुमान कहा जाता है। (यद्यपि अनुमान के प्रतिज्ञा और हेतु दो ही अवयव होते है।) परंतु मंदमतिवाले शिष्यो को समजाने के लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमन-ये तीन अवयवो का प्रयोग किया जा सकता है। दृष्टान्तो द्विधा, अन्वयव्यतिरेकभेदात्-90 । साधनसत्तायां यत्रावश्यं साध्यसत्ता प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तःF-91 । साध्याभावेन साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः-92 । हेतोरुपसंहार उपनयः-93 । प्रतिज्ञायास्तूपसंहारो निगमनम् -94 । एते पक्षादयः पञ्चावयवाः (F-90-91-92-93-94) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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