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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
के फल का जनक है । अर्थात् संज्ञा = प्रत्यभिज्ञान फल है और स्मृति प्रमाण है । प्रत्यभिज्ञारुप संज्ञा भी तथाभूत तर्कस्वभावक चिंता को उत्पन्न करती है । अर्थात् प्रत्यभिज्ञारुप संज्ञा से तर्करुप चिंता फल उत्पन्न होता है। इसलिए संज्ञा प्रमाण है। तर्क फल है। चिंतारुप तर्क भी अनुमानस्वरुप आभिनिबोध - फल का जनक है। अर्थात् तर्क अविनाभाव का ज्ञान कराके आभिनिबोध - अनुमान को उत्पन्न करता है। इसलिए तर्क प्रमाण है, आभिनिबोध अनुमान फल है। आभिनिबोध से भी हेयोपादेय बुद्धिरुप फल उत्पन्न होता है । इसलिए आभिनिबोध अनुमान प्रमाण है, हेयोपादेयबुद्धि फल है । इसलिए तत्वार्थसूत्र में कहा है कि.. "मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, आभिनिबोध - यह अनर्थान्तर है - कथंचित् अभिन्न है = कथंचित् एक विषयक है।" (अकलंकदेव इस सूत्र का तात्पर्यार्थ इस तरह से बताते है -) जब तक इन ज्ञानो का शब्दरुप से उल्लेख न किया जाये अर्थात् उसमें शब्दयोजना न हो, तब तक वे सभी मतिज्ञान है ।
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शब्दयोजना से उत्पन्न होनेवाला अविशदज्ञान श्रुत है । तात्पर्य यह है कि जब तक मति, स्मृति आदि में शब्दयोजना होती नहीं है तब तक वह मतिज्ञानरूप है तथा शब्दयोजना से होनेवाला तथा अन्य भी शब्दयोजना से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान श्रुतज्ञान है । परंतु सैद्धान्तिको ने तो ये मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और आभिनिबोध को अवग्रह - ईहा- अपाय - धारणा के रूप से चार भेदवाले मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द ही माने है । (यही बात तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य १।१३ में की है । आभिनिबोधकज्ञानस्यैव त्रिकालविषयस्यैते पर्याया नार्थान्तरेति मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यस्यानर्थान्तरमेतदिति । )
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स्मृति, संज्ञा, चिंता आदि यद्यपि पहले प्रत्यक्ष आदि प्रमाणो से ग्रहण किये हुए पदार्थों को ही जानते है । तो भी अविसंवादि होने के कारण अनुमान की तरह प्रमाण ही है । जैसे व्याप्तिज्ञान तर्क द्वारा जाने गये सामान्य अग्नि और धूमको ही कुछ विशेषरुप से जाननेवाला अनुमान कथंचित् अगृहीतग्राहि मानकर प्रमाण माना जाता है। वैसे स्मृति आदि ज्ञान भी प्रमाण है । अन्यथा व्याप्ति तर्क रुप ग्राहकप्रमाण द्वारा गृहीत पदार्थ को विषय बनानेवाला अनुमान भी अप्रमाण बन जायेगा ।
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यहाँ शब्दयोजना से पूर्व अर्थात् शब्दयोजना न हो तब अविसंवादि और व्यवहार चलाने में समर्थ स्मृति आदि मतिज्ञान है और शब्दयोजना से उत्पन्न होता सर्वज्ञान श्रुतरुप है। इस तरह से मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विभाग करना । यहाँ स्मृति, संज्ञा, तर्क आदि परोक्ष प्रमाणो के भेदो को प्रत्यक्ष प्रमाण के विवरण के समय कहने का कारण यह है कि मति और श्रुत के विभाग का ज्ञान भी प्रसंग से स्पष्ट हो जायेगा ।
अथ परोक्षम् - अविशदमविसंवादि ज्ञानं परोक्षम् #- 79 । स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदतस्तत्पञ्चधा -80 । संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं F 81 स्मरणं, यथा तत्तीर्थकर बिम्बमिति १ अनुभवस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं, F-82 तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि, यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः, (F-79-80-81-82) - तु० पा० प्र० प० ।
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