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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन १९३/८१६ निर्णित हुए विषय की = पदार्थ की (कालांतर में) होनेवाली स्मृति में जो हेतु = कारण बने, उसे (अपाय के बाद होनेवाली) "धारणा" कहा जाता है। यहाँ पूर्व पूर्व की प्रमाणता और उत्तर उत्तर की फलता है। अर्थात् अवग्रह प्रमाण है, उसका ईहा फल है। ईहा प्रमाण हैं, उसका अवाय (अपाय) फल है। अपाय प्रमाण है, उसका धारणा फल है। इसलिए एक ही मतिज्ञान के प्रकार की चार संख्या तथा कथंचित् प्रमाण - फल का भेद संगत होता है। उस अनुसार से यद्यपि क्रम से उत्पन्न होनेवाले अवग्रहादि चारो ज्ञानो में क्रमशः कारण -- कार्यभाव है। इसलिएपर्यायार्थिक अवस्थाओ के भेद से भेद है, तो भी ये चारो ज्ञान एक आत्मा से तादात्म्य-अभेद रखते है। अर्थात् ये चारो ज्ञान का आत्मा में अभेद होने से (आत्म) द्रव्य की अपेक्षा से चारो ज्ञानो को कथंचित् एक अभिन्न मानने में विरोध नहीं है। अन्यथा अर्थात् आत्मद्रव्य की अपेक्षा से चारो ज्ञानो में कथंचित् एकता और पर्याय = अवस्थाभेद से अनेकता न मानी जाये तो) उन चारों ज्ञानो में परस्पर हेतु-फलभाव का अभाव हो जायेगा । अर्थात् परस्पर उपादान-उपादेयभाव या कारण-कार्यभाव नहीं बन सकेगा। F-75धारणास्वरूपा च मतिरविसंवादस्वरूपस्मृतिफलस्य हेतुत्वात्प्रमाणं, स्मृतिरपि तथाभूतप्रत्यवमर्शस्वभावसंज्ञाफलजनकत्वात्, संज्ञापि तथाभूततर्कस्वभावचिन्ताफलजनकत्वात् । चिन्ताप्यनुमानलक्षणाऽऽभिनिबोधफलजनकत्वात्, सोऽपि हानादिबुद्धिजनकत्वात्, तदुक्तम्-'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिवोध इत्यनर्थान्तरम्' [त० सू० १/ १३] अनर्थान्तरमिति-कथञ्चिदेकविषयं प्राक्शब्दयोजनान्मतिज्ञानमेतत् । शेषमनेकप्रभेदं शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं ज्ञानं श्रुतमिति केचित्"-76 | F-7सैद्धान्तिकास्त्ववग्रहेहावायधारणाप्रभेदरूपाया मतेर्वाचकाः पर्यायशब्दा मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्येते शब्दा इति प्रतिपन्नाः । स्मृतिसंज्ञाचिन्तादीनां च कथञ्चिदगृहीतग्राहित्वेऽप्यविसंवादकत्वादनुमानवत्प्रमाणताभ्युपेया, अन्यथा व्याप्तिग्राहकप्रमाणेन गृहीतविषत्वेनानुमानस्याप्रमाणताप्रसक्तेः, F-78अत्र च यच्छब्दसंयोजनात्प्राक स्मृत्यादिकमविसंवादि व्यवहारनिर्वर्तनक्षमं वर्तते तन्मतिः शब्दसंयोजनात्प्रादुर्भूतं तु सर्वं श्रुतमिति विभागः । स्मृतिसंज्ञादीनां च स्मरणतर्कानुमानरूपाणां परोक्षभेदानामपि यदिह प्रत्यक्षाधिकारे भणनं तन्मतिश्रुतविभागज्ञानाय प्रसङ्गेनेति विज्ञेयम् ।। व्याख्या का भावानुवाद : धारणा स्वरुप मतिज्ञान अविसंवादस्वरुप स्मृतिरुप फल का कारण होने से प्रमाण है। अर्थात् धारणा प्रमाण है। स्मृति फल है। स्मृति भी “यह वही है" इत्याकारक प्रत्यवमर्श स्वभावक = संकलन रुप संज्ञा (F-75-76-77-78) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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