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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन हो, तब अन्य अदृष्टपदार्थ की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है।" जैसे कि, जीवित देवदत्त घर में न दिखने से देवदत्त के अदृष्ट बर्हिभाव की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है। इस स्वरुपवाली अर्थापत्ति का भी अनुमान में समावेश होता है । क्योंकि अर्थापत्ति से उत्थापक अर्थ (पदार्थ) अन्यथा अनुपपत्ति के निश्चय से ही अदृष्ट अर्थ की परिकल्पनारुप है और अन्यथा अनुपपत्ति का निश्चय अनुमानरूप है। ( कहने का मतलब यह है कि, जैसे अनुमान में लिंग से अविनाभावि परोक्षसाध्य का ज्ञान होता है, वैसे अर्थापत्ति में भी एकपदार्थ से अविनाभावि परोक्ष पदार्थो की कल्पना की जाती है । दोनो में अविनाभाव के निश्चय से ही अन्य परोक्षपदार्थ की सिद्धि होती है। जहाँ भी अविनाभाव के निश्चय से-बल से अन्य परोक्षपदार्थ का ज्ञान होता है, वे सब भी अनुमानरुप ही है। इतना याद रखना कि, अनुमान में “तथा उपपत्ति और अन्यथा अनुपपत्तिरुप" हेतु से परोक्षपदार्थ की सिद्धि होती है, जब कि अर्थापत्ति में अन्यथा अनुपपत्तिरुप हेतु से परोक्ष पदार्थ की सिद्धि होती है ।) अभावप्रमाण के तीन रुप है । (१) जो पदार्थ का अभाव करना है, उसकी सिद्धि करनेवाले प्रमाणपंचक का अभाव है। अर्थात् प्रमाणपंचकाभाव । (२) तदन्यज्ञान अर्थात् जो आधार में अथवा जो पदार्थ के साथ उसको देखा था, उसमें से मात्र उससे अन्य ऐसे आधार और पदार्थों का ज्ञान हो । परंतु उसका ज्ञान न हो । (जैसे घट को भूतल में या भूतल के साथ देखा था, अब मात्र भूतल ही दिखता है, तो घट का अभाव हो जाता है ।) (३) आत्मा ज्ञान से रहित हो । अर्थात् आत्मा में ज्ञान उत्पन्न ही न हो । १८९/८१२ उसमें प्रथमपक्ष का असंभव ही है। क्योंकि प्रमाणपंचक का अभाव प्रसज्यपक्ष में तुच्छरुप होने से अवस्तुरुप है तथा जो अवस्तुरुप है, वह ज्ञान को उत्पन्न कर सकता नहीं है। जो वस्तुरुप है, वही ज्ञान को उत्पन्न कर सकता है। इसलिए वह अवस्तुरुप होने से अभावविषयकज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकेगा । द्वितीयपक्ष में तो पर्युदास पक्षानुसार घट से अन्य भूतलादि का ज्ञान प्रत्यक्ष से ही हो रहा है, वह प्रत्यक्षरुप ही है। प्रत्यक्ष से ही घटादि से रहित भूतलादि ग्रहण होता है। तो फिर उससे अतिरिक्त अभावप्रमाण मानने की आवश्यकता ही क्या है ? अर्थात् अतिरिक्त अभाव प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कभी "वह (यह) भूतल आज घटशून्य है । ( जिसमें कल घट था । ) " ऐसे प्रकार का अभावज्ञान प्रत्यभिज्ञा से ही हो जाता है । "जो अग्निवाला नहीं है, वह धूमवाला भी नहीं है।" ऐसे प्रकार का धूम - अग्नि के अभाव का ज्ञान तर्क से होता है। “यहां धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि नहीं है।" ऐसे प्रकार के धूम के अभाव का ज्ञान अनुमान से होता है। “घर में गर्ग नहीं है।" ऐसे प्रकार के प्रामाणिकवचन से गृह में गर्ग के अभाव का ज्ञान आगमप्रमाणरूप ही है। ( इस तरह से यथायोग्य प्रत्यक्षादि प्रमाणो से ही) अभाव की प्रतीति हो जाती है, तो अभावप्रमाण की आवश्यकता ही क्या है ? तृतीयपक्ष का तो संभव ही नहीं है। आत्मा में ज्ञान का अभाव हो, तो आत्मा किस तरह से वस्तु के अभाव का संवेदन कर सकेगा ? क्योंकि संवेदन ज्ञान का धर्म है । यदि आत्मा में ज्ञान न हो, तो उसका धर्मरुप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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