SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४/७९७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन में सर्वोत्कृष्ट स्थान दो है। एक सर्वदुःख का स्थान सातवीं नरक और दूसरा सर्वसुख का स्थान मोक्ष है। इसलिए जैसे स्त्रीयों का सातवीं नरक पृथ्वी में गमन आगम में नकारा है। क्योंकि सातवीं नरक पृथ्वी में जाने प्रायोग्य वैसे प्रकार के सर्वोत्कृष्ट अशुभमनोवीर्य का स्त्री में अभाव होता है। इस अनुसार से वैसे प्रकार के सर्वोत्कृष्ट शुभमनोवीर्य का भी स्त्रीयो में अभाव होने से मोक्ष भी होगा नहीं। अनुमानप्रयोग इस अनुसार से है - "स्त्रीयों में मुक्ति के कारणभूत शुभ मनोवीर्य का प्रकर्ष होता नहीं है, क्योंकि वह परमप्रकर्ष (सर्वोच्चदशा) है। जैसे कि, सातवीं पृथ्वी में जाने के कारणभूत अशुभमनोवीर्य का परमप्रकर्ष अभाव। इस प्रकार स्त्रीयों में शुभमनोवीर्य का परमप्रकर्ष का अभाव होने से मुक्ति होती नहीं है। उत्तरपक्ष ( श्वेतांबर): आपका कथन अयोग्य है। क्योंकि व्याप्ति का अभाव है। (ऐसा कोई नियम नहीं है कि कोई दृष्टांत में हेतु और साध्य की व्याप्ति मिल जाने से ही हेतु सत्य बन जाये । परंतु पक्ष में भी उसका अविनाभाव मिलना चाहिए । इसलिए अंतर्व्याप्ति = पक्ष में साध्य-साधन की व्याप्ति ही सचमुच हेतु में सत्यता लाने का प्रधान कारण है। सारांश में, दृष्टांत में साध्य-साधन की व्याप्ति वह बहिर्व्याप्ति । उससे हेतु सत्य बनता नहीं है । पक्ष में साध्य-साधन की व्याप्ति वह अंतर्व्याप्ति । उससे हेतु सत्य बनता है। इसलिए) बहिर्व्याप्ति मात्र से हेतु (साध्यका) गमक बन जाता नहीं है। परंतु अंतर्व्याप्ति से ही हेतु साध्य का गमक बनता है। अन्यथा तत्पुत्रत्वादि हेतु से भी गमकत्व प्रसंग आयेगा। (अर्थात् अंतर्व्याप्ति से हेतु में साध्य का गमकत्व मानने के बदले बहिर्व्याप्ति से भी हेतु में साध्य का गमकत्व मानोंगे तो) गर्भगत बालक में श्यामता (कालापन) सिद्ध करने के लिए दीया गया तत्पुत्रत्व हेतु भी सत्य बन जायेगा। इसलिए अंतर्व्याप्ति प्रतिबंध (अविनाभाव) के बल से ही सिद्ध होता है। यहाँ (उपरोक्त आपके अनुमान में) प्रतिबंध (अविनाभाव) विद्यमान नहीं है। अर्थात् सातवीं नरक में जाने में और मोक्ष में जाने में कोई अविनाभाव नहीं है। क्योंकि कोई सातवीं नरक में न जाये तो भी मोक्ष में जा सकता है) इसलिए हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक - संदिग्धव्यभिचारी है तथा चरमशरीरी जीवो के साथ निश्चय से व्यभिचार है। (क्योंकि चरमशरीरी नरक में न जाने पर भी मोक्ष में जाते है। इसलिए निश्चय से उपरोक्त आपका नियम व्यभिचारी है।) वैसे ही चरमशरीरी जीवो में सातवीं नरक पृथ्वी में जाने के कारणभूत अशुभमनोवीर्य के प्रकर्ष के असद्भाव में भी मुक्ति में जाने के कारणभूत शुभ मनोवीर्य के प्रकर्ष का सद्भाव होता है। तथा महामत्स्यो से भी आपका उपरोक्त नियम व्यभिचारी बनता है। क्योंकि वे महामत्स्यो में सातवीं नरक पृथ्वी में गमन के कारणभूत अशुभमनोवीर्य के प्रकर्ष का सद्भाव होने पर भी मुक्तिगमन में कारणभूत शुभमनोवीर्य के प्रकर्ष का सद्भाव होता नहीं है। तथा नहि येषामधोगमनशक्तिः स्तोका तेषामूर्ध्वगतावपि शक्तिः स्तोकैव, भुजपरिसपादिभिर्व्यभिचारात । तथाहि-F-42भुजपरिसर्पा अधो द्वितीयामेव पृथ्वीं गच्छन्ति न ततोऽधः (F-42) -- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy