SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५०, जैनदर्शन १३३/७५६ धर्मरूपफलविपाक इति । व्यत्ययः कस्मान भवतीति चेत् ?, उच्यते, अशुभक्रियारम्भिणामेव च बहुत्वात् शुभक्रियानुष्ठातृणामेव च स्वल्पत्वादिति कारणानुमानम् ।। व्याख्या का भावानुवाद : शंका : जैसे नीलादि मूर्तवस्तु, स्वप्रतिभासि अमूर्तज्ञान का कारण है, वैसे अन्न, माला, चंदन, अंगनादि दृश्यमान मूर्तवस्तु ही अमूर्तसुख का कारण है । तथा सांप, विष, कंटक इत्यादि दृश्यमान मूर्तवस्तु ही अमूर्तदुःख का कारण है। इसलिए परिकल्पित अदृष्ट पुण्य-पाप द्वारा क्या प्रयोजन है ? समाधान : आपकी बात योग्य नहीं है। क्योंकि व्यभिचार आता है। अन्न, स्त्री आदि समान साधनवाले दो पुरुषो में सुख-दुःखरुप फल में महान भेद दिखाई देता है। तुल्य अन्नादि के भुगतान में एक को आह्लाद होता दिखाई देता है और दूसरे को बिमारी होती है। यह फल में दिखाई देता भेद सकारण है। क्योंकि निष्कारणत्व में या तो वस्तु एकांतिक सत् होता है या तो एकांतिक असत् होता है अर्थात् फल में दिखता यह भेद निष्कारण मानोंगे तो वह नित्य सत् या नित्य असत् मानने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् वह हमेशां होता, या हमेशा न होता वैसा मानना पडेगा । इस प्रकार जगत में फल में दिखाई देता भेद सकारण ही होता है और उस कारण के रुप में पुण्य-पापरुप अदृष्ट कर्म है । इसलिए आगममें कहा है कि... ___ "तुल्य सामग्रीवाले पुरुषो के सुख-दुःखरुप फल में जो विशेषता दिखती है। वह कारण के बिना होती नहीं है। हे गौतम ! जैसे घट बिना कारण उत्पन्न होता नहीं है, वैसे समान सामग्रीवाले पुरुषो के सुखदुःखादि की विचित्रता भी बिना कारण उत्पन्न होती नहीं है। ॥१॥" अथवा कारण अनुमान से तथा कार्य अनुमान से इस अनुसार पुण्य-पाप की सिद्धि होती है। कारणानुमान : “दानादि शुभक्रियाओ का तथा हिंसादि अशुभक्रियाओ का फलभूत कार्य है। क्योंकि कारण है। जैसे कि खेती इत्यादि की क्रिया।" इस अनुमान से वे क्रियाओ का जो फल है उसे पुण्य और पाप जानना । जैसे खेती इत्यादि क्रियाओंका फल चावल, यव, गेहूं इत्यादि है, वैसे उस क्रियाओंका फल पुण्य और पाप जानना । शंका : जैसे खेती इत्यादि क्रिया दृष्ट साक्षात् ऐसे शालि इत्यादि के फलमात्र से पूर्ण प्रयोजनवाली होती है, वैसे दानादिक्रिया और हिंसादिक्रिया, इस प्रकार सभी क्रियाएं प्रशंसा आदि और मांसभक्षणादि स्वरुप, दृष्ट फलमात्र से पूर्ण प्रयोजनवाली हो । - उसके फल के रुप में पुण्य-पाप की कल्पना करने की क्या जरुरत है ? कहने का मतलब यह है कि, जैसे खेती इत्यादि क्रियाओं का साक्षात् प्रयोजन धान्य की प्राप्ति है। वह प्राप्त होने से प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। बाद में कोई अदृष्ट फल की कल्पना नहीं की जाती है। वैसे दानादिक्रियाओ का साक्षात् प्रयोजन प्रशंसा, मान, सन्मानादि है, वह प्राप्त होने से उस क्रिया का प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है। तो फिर अदृष्ट ऐसे पुण्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy