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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ४८-४९, जैनदर्शन - पुद्गलाः । इति सुस्थितमजीवतत्त्वम् ।। अथ पुण्यतत्त्वमभिधत्ते “ पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः” इति पुण्यं सन्तस्तीर्थकरत्वस्वर्गादिफलनिर्वर्तकत्वात्प्रशस्ताः कर्मणां पुद्गला जीवसंबद्धाः कर्मवर्गणाः । ।४८-४९ ।। १२९/७५२ व्याख्या का भावानुवाद : अंधकार और छाया की पौद्गलिकता इस अनुसार से है । (१) अंधकार पुद्गल का परिणाम है। क्योंकि दृष्टि का प्रतिबंधक है। जैसे दिवाल इत्यादि पौद्गलिक पदार्थ दृष्टिसंचार का प्रतिबंधक है, वैसे अंधकार भी दृष्टिसंचार का प्रतिबंधक होने से दिवाल की तरह पौद्गलिक है। (२) अंधकार पुद्गल का परिणाम है। क्योंकि आवरण करनेवाला है, जैसे कपडा इत्यादि आवरण करता है, वैसे अंधकार आवरण करता है । इसलिए अंधकार कपडे इत्यादि की तरह पौगलिक है । छाया भी पौद्गलिक है। क्योंकि वह ठंडी और शरीर को पुष्ट करके शांति देता है। जैसे (गर्मी के दिनो में) ठंडी हवा । (दर्पण इत्यादि में) छाया रूप से पडा हुआ प्रतिबिंब भी पौगलिक है । क्योंकि वह आकारवाला है 1 शंका : मुख से निकले हुए छाया पुद्गल अत्यंत कठोर दर्पण को भेदकर प्रतिबिंब किस तरह से बन जाते है ? समाधान : उसका प्रतिभेद - उत्तर यह है कि.... जैसे कठिन शिला के उपर डाला हुआ पानी अंदर उतर जाता है। गोले को अग्नि से गरम करने से गोले में अग्नि प्रवेश करती है और अग्नि की तरह लाल बन जाता है तथा शरीर में से पसीना बाहर नीकलता है। वैसे मुख में से निकले हुए छाया के पुद्गल दर्पणतल में प्रवेश करके प्रतिबिंब बताता है । आतप भी पुद्गल द्रव्य है। क्योंकि तपाता है। शरीर में पसीना करता है तथा उष्ण है । जैसे कि, अग्नि । उद्योत तथा चांदनी इत्यादि भी पुद्गलद्रव्य ही है । क्योंकि आह्लाद कराता है । जैसे कि, पानी तथा अग्नि की तरह प्रकाशक है । उसी ही तरह से पद्मराग इत्यादिक मणियों का प्रकाश भी अनुष्णाशीत है । इस प्रकार अंधकार, छाया, आतप (धूप), उद्योत इत्यादि मूर्त (ऐसे पुद्गलद्रव्य) के विकार है । इस तरह से पुद्गलो की सिद्धि होती है । इस अनुसार से अजीव तत्त्व का वर्णन पूर्ण हुआ। Jain Education International अब पुण्यतत्त्व को कहते है । सत् = प्रशस्तकर्म के पुद्गलो को पुण्य कहा जाता है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, स्वर्ग इत्यादि प्रशस्त पदो तक पहुंचानेवाला कर्म पुद्गल पुण्य कहा जाता है। वह कर्मपुद्गल जीव के साथ संबद्ध रहता है । ।४८-४९॥ अथ पापास्त्रवतत्त्वे व्याख्याति । अब पाप और आश्रवतत्त्व की व्याख्या करते है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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