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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन अप्रत्यक्ष है। परन्तु देशांतर में रहे हुए कुछ लोगो को तो प्रत्यक्ष ही है। इसलिए उनकी विद्यमानता प्रतीत है। परंतु धर्मास्तिकायादिद्रव्य किसी भी व्यक्तियों के द्वारा कभी भी उपलब्ध हुए नहीं है। इसलिए उनकी सत्ता का निश्चय किस तरह से किया जा सकता है ? १२० / ७४३ समाधान: जैसे देशांतर में गये हुए देवदत्तादि कुछ लोगो को प्रत्यक्ष होने से, उनकी सत्ता का निश्चय किया जाता है। वैसे धर्मास्तिकायादि द्रव्य भी केवलज्ञानियों को प्रत्यक्ष होने से क्या उसकी सत्ता का निश्चय नहीं किया जा सकता ? किया ही जा सकता है। अथवा परमाणु नित्य अप्रत्यक्ष होने पर भी ( परमाणु से उत्पन्न हुए) अपने कार्यो स्कन्धों से अनुमेय है, वैसे धर्मास्तिकायादि भी क्या अपने कार्यों से अनुमेय नहीं है ? है ही । धर्मास्तिकाय के कार्य है । धर्मास्तिकाय गति में उपकारक होनेरुप कार्य से अनुमेय है । अधर्मास्तिकाय स्थिति में उपकारक होनेरुप कार्य से अनुमेय है। आकाश अवकाश देनेरुप कार्य से अनुमेय है। वर्तनादि उपकार से अनुमेय काल है और पुद्गल तो प्रत्यक्ष और अनुमान उभय से मालूम होते ही है। शंका : आकाशादि स्वकार्यो से अनुमेय चाहे हो, परंतु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय स्वकार्यो से किस तरह से अनुमेय होता है ? समाधान : धर्माधर्म स्वकार्यों से कैसे अनुमेय है, वह युक्ति यहीं कही जाती है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय स्वतः गति और स्थिति में परिणत द्रव्यो को गति स्थिति में उपकार करते होने से अपेक्षाकारण है। जैसे कि, वस्तुओ को अवकाश देने का और वर्तनादि पर्यायो में उपकार करनेवाला आकाश और काल अपेक्षाकारण है। वैसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यो की गति -स्थिति में अपेक्षाकारण है। परंतु निर्वर्तककारण नहीं है। क्योंकि निर्वर्तककारण तो गति-स्थिति क्रिया से विशिष्ट जीव या पुद्गलद्रव्य स्वयं है, जबकि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय तो गति- स्थिति की क्रिया में परिणतद्रव्यो को उपकारक ही है। परंतु जबरदस्ती से गति-स्थिति के निर्वर्तक नहीं है। तथा जैसे सरोवर, तालाब, समुद्र इत्यादि में अतिवेग से बहने पर भी स्वयं तैरने की इच्छावाली मछली को (तैरने में उपकारक) पानी निमित्ततया ही उपकार करता है । अर्थात् मछली का तैरने का स्वभाव अपना ही है। परंतु पानीरुप निमित्त की आवश्यकता होती है। इसलिए मछली को तैरने में पानी निमित्तकारणतया उपकारक बनता है। परंतु पानी जबरदस्ती से मछली को तैराता नहीं है । तथा जैसे परिणामिकारण मिट्टी से घट के कर्ता कुम्भकार को घट बनाने में दंडादि निमित्त बनते है तथा जिस तरह से आकाश में फिरते पक्षीओ को आकाश अपेक्षाकारण है। परंतु समुद्र इत्यादि का पानी गति का कारण नहीं है । गति करने की इच्छा से रहित मछली को भी समुद्र का पानी जबरदस्ती से तैरने की प्रेरणा करके गति कराता नहीं है । अथवा पृथ्वी स्वयं खडे रहे हुए द्रव्य को खडे रहने का स्थान देती है । परन्तु नहि खड़े रहते द्रव्य को जबरदस्ती से खड़ा रखती नहीं है । अथवा आकाश भी स्वयं ही अवगाहना करते द्रव्य को निमित्तकारण बनकर अवगाह (अवकाश) देता है। परंतु अवगाहना को नहि चाहनेवाले को भी अवकाश देता नहीं है। क्योंकि वह खुद केवल सहायक ही है । स्वयं ही खेती के आरंभ में प्रवर्तित हुए किसानो को बरसात अपेक्षाकारण के रुप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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