SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२/७१५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन कदाचित्सचेतनं संघातत्वात्, पाणिपादसंघातवत् । तदेव कदाचित्किंचिदचेतनमपि शस्त्रोपहतत्वात्, पाण्यादिवदेव, न चात्यन्तं तदचित्तमेवेति ।।१।। व्याख्या का भावानुवाद : शंका : विद्रुम, पाषाणादि पृथ्वी कठीन पुद्गलस्वरुप होने से किस तरह से उसमें सचेतनत्व हो सकेगा? समाधान : कठीन होनेमात्र से अचेतन मानना उचित नहीं है, क्योंकि जीवितशरीर में रही हुई हड्डीयां सचेतन और कठीन होती है। इस तरह से जीवित पृथ्वी का शरीर कठीन होने पर भी सचेतन होने में कोई बाध नहीं है। अथवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जीव के शरीर है। क्योंकि वे छेद्य,भेद्य, उत्क्षेप्य, भोग्य, प्रेय, रसनीय, स्पृश्य द्रव्य है। जैसे कि (गाय के) सिंग, दडी इत्यादि का समूह।. ___ पृथ्वी इत्यादि में स्पष्टतया दिखते छेद्यत्वादि धर्मो को छिपाना संभव नहीं है। इससे पृथ्वी इत्यादि सचेतन सिद्ध होते है। तथा पृथ्वी आदि को जीव के शरीर मानना अनिष्ट नहीं है, क्योंकि जगत के सभी पुद्गलद्रव्य द्रव्यशरीर के रुप में स्वीकार किये गये है। केवल विशेष इतना ही है कि, कोई पुद्गल जीवसहित हो के सजीवस्वरुप होता है । तो कोई पुद्गल जीवरहित होने से अजीवस्वरुप होता है, इस बात को सिद्ध करते दो अनुमान इस अनुसार से है "शस्त्र से उपहत नहीं हुई (खान की) पृथ्वी इत्यादि सचेतन है, क्योंकि वह वृद्धि पाती शिलाओं का समुदाय है । जैसे हाथ-पैर आदि का समुदाय ।" इस अनुमान से शस्त्र से उपहत न हुआ जीवसहित का पुद्गल सजीव सिद्ध होता है। तथा "उसी खान की पृथ्वी कभी अचेतन भी होती है। क्योंकि शस्त्र से उपहत हुई है। जैसे कि कटा हुआ हाथ इत्यादि।" इस अनुमान से शस्त्र से उपहत हुआ जीवरहित पुद्गलद्रव्य निर्जीव सिद्ध होता है। वैसे ही पृथ्वी को सर्वथा अचित्त नहीं कहा जा सकता। तथा जो पृथ्वी बढती नहीं है, वह अचित्त है, ऐसा भी नहीं कहना । इस प्रकार कोई पृथ्वी सचेतन होती है। तो कोई पृथ्वी अचेतन होती है। इस तरह से पृथ्वी में जीवत्व की सिद्धि हुई। अथ नाप्कायो जीवः, तल्लक्षणायोगात्, प्रस्रवणादिवदिति चेत् ? नैवं, हेतोरसिद्धत्वात् । यथा हि - हस्तिनः शरीरं कललावस्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवं चेतनं च दृष्टं, एवमप्कायोऽपि, यथा वाण्डके रसमात्रमसंजातावयवमनभिव्यक्तचञ्चादिप्रविभागं चेतनावदृष्टम् । एषैव चोपमाज्जीवानामपि । प्रयोगश्चायम्-सचेतना आपः, शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात्, हस्तिशरीरोपादानभूतकललवत् । हेतोर्विशेषणोपादानात् प्रस्रवणादिव्युदासः । तथा सात्मकं तोयम्, अनुपहतद्रवत्वात्, अण्डकमध्यस्थितकललवदिति । इदं वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy