SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका "स्याद्वाद" सिद्धांत को सरलता से समजने के लिए प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक-५५ की टीका अवलोकनीय है । इसमें सुवर्णघट का दृष्टांत लेकर द्रव्यतः आदि अनेक विकल्पो से वस्तु की अनंतधर्मात्मकता की सिद्धि की गई है । तदुपरांत अन्यदर्शनकार भी अपने सिद्धांतो की पुष्टी के लिए स्याद्वाद का आलंबन किस तरह से लेते है, वह दृष्टांत सहित बताया है । जैन दर्शन के इस सिद्धांत को समजने के लिए उसके स्तंभरूप नय, सप्तभंगी और निक्षेप, इन तीन विषय के स्वरूप को भी समजना अति आवश्यक हैं ।९३४) नयवाद: जो अभिप्राय विशेष से शाब्दबोध में प्रतिभासित होती अनंतधर्मात्मक वस्तु के इतर अंश की उदासीनतापूर्वक स्वाभिप्रेत अंश का ज्ञान किया जाता है, उस अभिप्राय विशेष को नय(१३५) कहा जाता है । अर्थात् अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक विवक्षित (स्वाभिप्रेत) अंश (धर्म) को बतानेवाले अभिप्राय विशेष - अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं । सुनय स्वाभिप्रेत अंश-धर्म को बताते समय वस्तु के इतर अंशो का अपलाप नहीं करता हैं। जो अभिप्राय इतर अंशो का अपलाप करके एकांत से स्वाभिप्रेत अंश को (धर्म को) बताता है, उसे दर्नय कहा जाता है । वस्तु अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु के अनंता धर्मविशेषो को बतानेवाले नय भी अनंत हैं । फिर भी जैनशास्त्रो में सामान्यत: उसे दो विभाग में बांटे गये हैं - (१) द्रव्यार्थिक नय और (२) पर्यायार्थिक नय । दोनो के आंतर्भेद सात हैं । (१) नैगमनय, (२) संग्रहनय, (३) व्यवहार नय, (४) ऋजुसूत्र नय, (५) शब्दनय, (६) समभिरूढ नय और (७) एवंभूत नय । नय का स्वरूप, नय वाक्य - प्रमाण वाक्य के आकार, नय के भेद-प्रभेद और उसका स्वरूप, नयाभासो (दुर्नयो) का स्वरूप, नयो के न्यूनाधिक विषय, कौन से नय में से कौन से दर्शन की उत्पत्ति आदि नय के विषयो की विस्तृत और सूक्ष्म चर्चा जैनदर्शन के ग्रंथो में दिखाई देती है । न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने तो नयविषयक नयरहस्य, नयोपदेश और नयप्रदीप जैसे स्वतंत्र ग्रंथो की रचना की हैं । पूर्वोक्त विषयो को समा लेता एक स्वतंत्र लेख तैयार करके प्रस्तुत ग्रंथ में "जैनदर्शन का नयवाद" परिशिष्ट के रूप में संकलित किया हैं । सप्तभंगी : कोई भी एक वस्तु में एक-एक धर्म के विषय में प्रश्न करने के कारण विरोध के बिना अलग-अलग और समुदित विधि-निषेध की कल्पना द्वारा (विचारणा द्वारा) "स्यात" शब्द से लांछित सात प्रकार का शब्द प्रयोग (होता है. उसे) सप्तभंगी कहा जाता हैं ।१३६) (१) स्यादस्ति, (२) स्यान्नास्ति, (३) स्यादस्ति च स्यान्नास्ति च, (४) स्यादवक्तव्यम्, (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यं च, (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यं च, (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च : इस तरह से सात भांगे हैं । उसमें से 134. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयोपादेयविशेषकः ।। (आप्तमीमांसा श्लो-१०४) स च तिङ्गन्तप्रतिरुपको निपातः, तस्य अनेकान्तविधिविचारादिषु बहुष्वर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात् अनेकान्तार्थो गृह्यते ।। (त.वा.पृ. ८१) । त.श्लो. पृ. १३६) (न्यायकुमु. पृ. ३) । (रत्नकराव. ४/१२) । (स्याद्वादमंजरी का. ५) । 135. नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः, स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः ।। (प्र.न. तत्त्वा. ७/१) 136. एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधि-निषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कित: सप्तधा वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी ।।४-१४ ।। (प्रमा.न.तत्त्वा.) (जैनतर्कभाषा-प्रमाण परिच्छेद)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy