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________________ ५७६ ___ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय अत्र पर आह, ननु.... रागादय इति उच्यते, यद्यपि.... दृश्यते । (गाथा - ५२ टीका) (१३) कंई बार नीचे के अनुसार की शैली भी दिखाई देती है। ननु भवतु कर्मणामभावेऽपि.. इति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्.... । (यहां "ननु" से "इति चेत्" तक शंकाग्रंथ - पूर्वपक्षग्रंथ है। तथा न... से उत्तरपक्ष - समाधान ग्रंथ है ।) ऐसे स्थान पे पूर्वपक्ष से उत्तरपक्ष को आपत्ति दी होती है। उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष की दी हुई आपत्ति का निषेध करके, पूर्वपक्ष के अज्ञान को प्रकट करते होते है। तब उपर बताये गये प्रकार की शैली देखने को मिलती है। (१४) कोई बार उत्तरपक्षकार - टीकाकार श्री एक पदार्थ का निरुपण करते है और उसके बाद उस पदार्थ के विषय में अन्यमत की कोई भिन्न पेशकश हो तो उस पेशकश "एतेन" कहकर रखते है और अंत में हमारे आगे के निरुपण से इस पूर्वपक्ष की बात का खंडन हो जाता है। वैसे “तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम्" पद रखकर कह देते एतेन यदूचुर्मीमांसका अपि.... इत्यादि तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम् । (गाथा - ५० टीका) (यहां एतेन से इत्यादि के बीच पूर्वपक्ष है तथा तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम् से उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष की बात का खंडन कर दिया है।) (१५) टीकाकार किसी पदार्थ का निरुपण करते वक्त अनेक विकल्प देते होते है । वह देने से पहले तद्यथा या यथा इत्यादि शब्द का प्रयोग करते होते है। उदा. अत्र सिद्धानां सुखमयत्वे त्रयो विप्रतिपद्यन्ते । तथाहि - आत्मानो सांख्या ३ । (गाथा - ५२ टीका...) तथाहि - तद्यथा इस अनुसार से है। (१६) कोई बार उत्तरपक्षकार अपने तत्त्वनिरुपण में पूर्वपक्ष की सभी मान्यता को पहले अत्र सौगताः संगिरन्ते । कहकर बता देते होते है और उसके बाद पूर्वपक्ष की मान्यता का "अत्र प्रतिविधीयते" कहकह खंडन को शुरु करते है। उसमें पूर्वपक्ष की एक-एक मान्यता के 'तत्तावदुक्तं... इत्यादि" "यत्पुनरुक्तं... इत्यादि" "यदव्युक्तं.... इत्यादि" कहकर रखते है और "तदविचारितविलपितम् तत्सूक्तमेव तदप्यज्ञानविजृम्भितम्" इत्यादि पदो से पूर्वपक्ष की अज्ञानता बताते है और बाद में उसका कारण बताते है - इस तरह से भी पूर्वपक्ष की बात रखकर उसका खंडन करने की शैली देखने को मिलती है। (श्लो. ५२ टीका, पृ...) (१७) इसी तरह से टीकाकारश्री उत्तरपक्षकारश्री "अत्र सांख्या ब्रुवते" "अथात्र दिगम्बराः स्वयुक्तिं स्फोरयन्ति" "योगैस्तु गर्जति" "अत्रादौ वैशेषिका स्वशेमुषीं विशेषयन्ति" पदो से उस उस पूर्वपक्ष की मान्यता को पेश करते है और "अत्र प्रतिविधीयते" या "अत्रोच्यते" कहकर उत्तरपक्षकार पूर्वपक्ष का खंडन शुरु करते है। (१८) कोई बार उत्तरपक्ष पूर्वपक्षने मानी हुई मान्यता में कुछ विकल्प खडा करता है और उस उस विकल्पो को उत्तरपक्ष अथ इत्यादि शब्दो से रखता है और उत्तरपक्षकार तर्हि तदा इत्यादि शब्दो से प्रारंभ करके खंडन करता है। (देखे गाथा ५२ टीका पृ.) (१९) टीकाकार परस्पर संकलित बातो का हेतुपूर्वक निरुपण करने के बाद परस्पर संकलन पाई हुई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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