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________________ ४७४ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परीशिष्ट-२, योगदर्शन आग्रह । द्वेष का विवश स्वरुप हैं। ये पाँचो क्लेश क्रियायोग से पतले पड़ते हैं। विवेकख्याति से दग्ध होते हैं और बाद में असंप्रज्ञात योग से चित्त का निरोध होने से उसका भी निरोध हो जाता है। कर्म :- कर्म दो प्रकार के हैं (१) शुक्ल कर्म = पुण्यकर्म (२) अशुक्ल कर्म = पाप कर्म । यहाँ सूत्र में कर्म पद का सामान्य अर्थ तो क्रिया होता हैं। परन्तु वह ईश्वर में संभव नहीं हैं। क्योंकि ईश्वर पुरुष विशेष हैं। और पुरुष निश्चल हैं। तो कर्म का अर्थ क्या माने ? सुख-दुःख के साधनरुप धर्म और अधर्म हैं। जो क्रिया सुख का असाधारण कारण हैं, वह क्रिया धर्मरुप हैं। और जो क्रिया दुःख का असाधारणकारण हैं, वह क्रिया अधर्मरुप हैं। ईश्वर में धर्माधर्मरुप क्रिया हैं, वह जगत्सर्जनरुपक्रियारुप हैं। विपाक :- क्लेश तथा कर्म के फलरुप जाति, आयुष्य और भोग को विपाक कहा जाता हैं। आशय :- "चित्तभूमौ शेरते'' चित्तभूमि में पड़ा रहनेवाला, विपाक को अनुकूल तथा विपाक के कारणभूत चित्तगत वासना का वाचक हैं। ___ईश्वर कैसे? :- (१) क्लेश, कर्म, विपाक और आशय के संसर्ग से तीनो काल में उपचार से भी रहित, (२) समग्र ऐश्वर्यसंपन्न और (३) पुरुष विशेष, वह ईश्वर हैं। ___ यहाँ सूत्र में केवल 'ईश्वर' इतना-यानी कि - "समग्र ऐश्वर्यवान वह ईश्वर" इतना लक्षण किया हो तो न्यायादिशास्त्र संमत ईश्वर में अतिव्याप्ति आती हैं। इसलिए "पुरुष विशेष" यह पद रखा हैं । इस पद से ईश्वर शुद्धचितिशक्तिस्वरुप हैं । अर्थात् ज्ञान इत्यादि ईश्वर के धर्म नहीं हैं, परन्तु स्वरुप हैं, यह सिद्धांत कहा हैं। तथा उसी पद से उपर जो शंका की थी कि ईश्वर यह प्रधान तथा पुरुष से कौन सा विलक्षण तत्त्व हैं, इसका समाधान किया हैं कि ईश्वर का पुरुष में अंतर्भाव होता हैं। उपरांत,यदि "पुरुषविशेष वह ईश्वर हैं" इतना मात्र कहने में इस लक्षण की इतर सर्वपुरुषो में अतिव्याप्ति आयेगी । अथवा तो इस सूत्र के लक्ष्यवाचक ईश्वर पद का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ लक्षण में मिला दे अर्थात् "ऐश्वर्यवाला तथा शुद्ध चितिशक्तिरुप पुरुष वह ईश्वर" ऐसा लक्षण करे तो भी हिरण्यगर्भादि तथा प्रकृतिलीन और मुक्त पुरुष इन सभी में अतिव्याप्ति आयेगी। क्योंकि वे सभी पुरुष हैं। तथा ऐश्वर्यवाले हैं। यह अतिव्याप्ति दूर करने के लिए प्रथम पद की आवश्यकता हैं। प्रथम पद से यह अर्थ कहा कि, क्लेशादि का संसर्ग जिसमें तीनो काल में उपचार से भी नहीं है वह। यदि "उपचार से भी'' इन पदो को रख दिये जाये तो ऊपर की अतिव्याप्ति दूर नहीं होती हैं। क्योंकि हिरण्यगर्भादि पुरुष, पुरुष होने से वस्तुतः तो क्लेशादि के संसर्ग से रहित ही हैं, परन्तु इतर पुरुष सत्त्वरुप स्व के स्वामी अथवा भोक्ता होने से, जैसे लश्कर (सैन्य)ने किये हुए जयपराजय का उसके स्वामीरुप राजा में उपचार किया जाता हैं, वैसे चित्त में रहे हुए क्लेशादि के संसर्गवाले उपचार से कहे जाते हैं। और ईश्वर में तो उपचार से कहा जाता हैं। और ईश्वर में तो उपचार से भी क्लेशादि का अभाव हैं । क्योंकि ईश्वर अविद्या को अविद्यारुप से जानकर अंगीकार करनेवाला होने से उस विषय में सदा अभिमानरहित हैं। मुक्त पुरुष भी क्लेशादि के संसर्ग से उपचार से भी रहित हैं, फिर भी ये पुरुष पहले जीवत्वदशामें थे तब वे संसर्ग से उपचार से रहित नहीं थे। इसलिए वे पुरुष के ऊपर आनेवाली अतिव्याप्ति दूर करने के लिए "तीनो काल में वे संसर्ग से रहित" ये पद आवश्यक हैं। इसी विशेषण से प्रकृतिलीन पुरुषो के उपर आती अतिव्याप्ति भी दूर होती हैं, क्योंकि जैसे मुक्त पुरुषो को भूतपूर्व उपचरित संसर्ग था वैसे प्रकृतिलीन पुरुषो में भी जब अपने काल का अवसान होता हैं तब अभिमान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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