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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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परिशिष्ट नं. २
योगदर्शन योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि है। सांख्यदर्शन और योगदर्शन की दार्शनिक विचारधारा एक ही है। सांख्यदर्शन जिन २५ तत्त्वो को मानता हैं, उसी २५ तत्त्वो को योगदर्शन मानता हैं। फर्क केवल इतना है कि, सांख्यदर्शन निरीश्वरवादी हैं, जब कि, योगदर्शन समाधि की सिद्धि के लिए ईश्वर को मानता हैं।
पुरुष और प्रकृति का स्वरुप सांख्यदर्शन में देखा हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग से ही संसार है। जब प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान हो, तब संयोग की विनिर्मुक्ति होने से आत्मा का मोक्ष होता है। प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान के लिए "योग" आवश्यक है। यह योग, उसके साधन, उससे प्राप्त होती सिद्धियों का विशद वर्णन योगशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है।
• ईश्वर का स्वरुप : पातंजल योगसूत्र में ईश्वर का स्वरुप बताते हुए कहा है कि - "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः । ॥१-२४॥
अविद्यादि क्लेश, धर्माधर्मरुप कर्म, जाति इत्यादि क्लेशकर्म के फलरुप विपाक तथा धर्माधर्म के संस्काररुप आशय - ये सर्व का त्रिकाल विषयक वस्तुतः तथा उपचार से होते संसर्ग से रहित शुद्धचितिशक्ति स्वरुप निरतिशय ऐश्वर्यवाले ईश्वर है।
क्लेश :- क्रियायोग से दूर होते क्लेश पांच प्रकार के हैं । (१) अविद्या, (२) अस्मिता, (३) राग, (४) द्वेष, (५) अभिनिवेश । इन पांच क्लेशो में अविद्या बाकी के चार की जननी हैं। इन सब क्लेशो की चार अवस्था हैं । (१) प्रसुप्त = सोये हुए की तरह काम न करते हुए पड़े हुए, परंतु जागते ऐसे हो । (२) तनु = पतलेशिथिल हो । (३) विच्छिन्न = तूटक तूटक वर्तन करनेवाला हो । (४) उदाररुप से सोचनेवाला हो । अब प्रत्येक का स्वरुप समजाते हैं।
अविद्या :- अविद्या अर्थात् उल्टा ज्ञान । वह चार तरीके से वर्तित होती दिखाई देती हैं। (१) अस्थायीअनित्य वस्तुओ में नित्यत्व का भान, (२) अपवित्र वस्तुओ में पवित्रता का निश्चय, (३) दुःख और उसके साधनो में सुख का निश्चय, (४) अनात्म वस्तु में आत्मत्व का निश्चय ।
अन्य दर्शन की इस विषय में मान्यता :- अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्म में नित्य, शुचि, सुख और आत्मबुद्धिरुप अविद्या हैं, ऐसा श्री पतंजलि ऋषि कहते हैं । जो पररुप का अदर्शन वह अविद्या हैं। अथवा असत् प्रकाशन शक्ति वह अविद्या हैं, ऐसा वेदान्ती मानते हैं। दूरत्व, पित्तदोष इत्यादि से इन्द्रियजन्य बुद्धिविशेष, अयथार्थ बुद्धिरुप अविद्या हैं । ऐसा वैशेषिक मतवाले मानते हैं। (२) अस्मिता :- अविद्या-उल्टे ज्ञान के कारण पहले तो जड बुद्धि को हम आत्मा मान बैठे, बाद में उसके साथ एकदूसरे के होकर वर्तन करे । यह बुद्धि और आत्मा की एकात्मता यही अस्मिता - "मैं पन'' प्रकृति और पुरुष का एकत्व । अस्मिता के कारण ही बुद्धि के सुख और दुःख को पुरुष अपना मानता हैं । (३) राग :- एक बार अनुभव किया हुआ सुख, "मुझे यह अच्छा लगा'" ऐसे संस्कार चित्त में स्थिर हुआ, बाद में वही साधन सामने आने पर "मुजे यह चाहिए" ऐसी जो प्रबल इच्छा होती है वह राग । (४) द्वेष :- राग से विपरित । (५) अभिनिवेश :- आग्रह, अपनेपन का
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