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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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नैमित्तिक कर्मो को वे परमेश्वर को अर्पण करने की बुद्धि से करते हैं, उस कर्मो से भक्ति का उदय होता हैं । भक्ति से चित्तशुद्धि होती हैं । और चित्तशुद्धि को द्वार करके भक्ति द्वारा परमेश्वर की प्राप्ति होती हैं । सगुण ब्रह्मरुप परमेश्वर की श्रद्धापूर्वक की भक्ति से ब्रह्मज्ञान प्रकट होता हैं और उसके द्वारा साधक विदेहमुक्ति को प्राप्त करता हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सन् १५०० में अपना चैतन्यमत स्थापित किया था। अपने मत के समर्थन में उन्होंने कोई ग्रंथ बनाया हो ऐसा सुनने को नहि मिलता हैं । परन्तु उनके शिष्य श्रीरुपगोस्वामीने अपने गुरु के मत के प्रचार के लिए 'लघुभागवतामृत' आदि ग्रंथो की रचना की थी। इस मत के विषय में टिप्पणी में देखने का परामर्श हैं।
चैतन्यमत में भगवान् :- भगवान् विज्ञानानन्द विग्रह हैं, ये अनन्त गुणों के निवासस्थान हैं। सत्य-कामत्व, सत्यसंकल्पत्व, सर्वज्ञत्व, सर्वविद्यत्व आदि अनन्त-अपरिमित गुण श्री भगवान् में सदा निवास करते हैं। गुण और गुणी का वास्तव में अभेद रहता है। इसलिए सत्यकामत्वादि अनन्तगुण भगवत्स्वरूप से पृथक् नहीं हैं। इस अभेद दृष्टि को ध्यान में रखकर विष्णुपुराण ज्ञान-बलादि गुणों को भगवत् शब्दवाच्य बतलाता है। [भागवत-१०/१४/ ७]भगवान् का विग्रह उनके स्वरूप से एकाकार ही है। अतः भगवद्-विग्रह नित्य तथा अप्राकृत है। इस प्रकार भगवान् के स्वरूप विग्रह तथा गुणों में किसी प्रकार का भेद या पार्थक्य नहीं हैं, तथापि पार्थक्य का वर्णन (जैसे भगवान् के गुण, भगवान् का स्वरूप) भाषा की दृष्टि से ही किया जाता हैं। चैतन्यमत में भेद का समर्थन जलकल्लोल न्याय से किया जाता हैं। श्री शंकराचार्य के मत के अनुकूल चैतन्यमत में भी ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य है। वह अखण्ड सच्चिदानन्दात्मक पदार्थ है। भगवान् में अचिन्त्य अपरिमेय शक्ति रहती है, जिसके कारण नानात्मक प्रतीत होने पर भी वह एकात्मक ही बना रहता है। भक्तों ने इसलिए भगवान् को वैदूर्य मणि के समान बतलाया है। इस शक्ति की परिभाषिकी संज्ञा 'विशेष' है, जिसकी कल्पना माध्वमत से ग्रहण की गई है। जहाँ पर भेदभाव होकर भी भेदकार्य की प्रतीति होती हैं, वहाँ 'विशेष' माना जाता है। यत्र भेदभावो भेदकार्य च प्रमिते, तत्रैव भेदप्रतिनिधिविशेषः कल्पयते (सिद्धान्तरत्न. पृ-२३) 'विशेष' भेदव्यवहार का
इदमत्रावधेयमस्ति यन्मुमुक्षोर्यतेोगिनो वा अन्तःकरणविशुद्धये सविशेषस्य सगुणस्य सकलस्य ब्रह्मणः समाराधनायां श्रद्धाभक्तिभ्यां नैरन्तर्येण ब्रह्मैवेदं सर्वम् 'भेददृष्टिरविद्येयम्' इत्यनेन श्रुत्यात्मकेन न्यायेन निर्गुणं निर्विकारं निराकारं तत् परं ब्रह्म ज्ञातुं तथा तत्स्वरूपेणाऽवस्थानरूपां विदेहमुक्ति प्राप्त्यर्थं खल्वयमेव चास्ति विषयः । एवञ्च प्रशान्तसर्वशत्रुभावो विकारो वा यतिर्निर्गुणनिष्कलपरब्रह्मज्ञानेनैव विदेहमुक्तिं समवाप्नोति । अयमपि श्रीचैतन्यमहाप्रभुः १५०० ईसवीये वर्षे स्वीयं स्वाभिमतं श्रीचैतन्यमतं संस्थापितवान् । तदनन्तरकालावच्छेदेन च तस्य यथाशक्तिप्रचारः प्रसारश्च जातः, इदानीमपि जायते इति । अयञ्च बङ्गदेशीय आसीदिति श्रूयत एव केवलम् । तथा बङ्गदेशीयस्य महानैयायिकस्य श्रीवासुदेवसार्वभौमस्य शिष्य आसीदित्यपी श्रूयते एव, तच्च श्रवणं सर्वथा चास्ति प्रामाणिकम्। __ अस्य महानुभावस्याऽयमासीत् सुदृढः सिद्धान्तः-यत्'भक्त्या त्वनन्ययालभ्यः' इति । अनेन श्रीचैतन्यमहाप्रभुमहोदयेन राधया सहितः श्रीकृष्णः परमेश्वर एवाऽहर्निशकालावच्छेदेन सेवितः समाराधितश्च, नहि कोऽपि ग्रन्थस्तत्र लिखितः । केवलं शिष्योपदेशमात्रेणैव स्वाभिमतस्याऽस्य मतस्य प्रचार प्रसारञ्च विहितवानयं महानुभावः । अहं दर्शनेतिहासलेखनपरायणः श्रीशशिबालागौडः खलु यावतोऽप्यस्य विदुषो द्वित्रिसङ्ख्याकान् शिष्यान् विदाङ्करोमि तावत केवलं नाम्नोल्लिखामि, तथा तेषां विषयेऽपि किञ्चिद् ब्रवीमि । अस्य चैतन्यमतसंस्थापकस्याऽचिन्त्यभेदाऽभेदवादप्रवर्तकस्य श्रीचैतन्यमहाप्रभोरनन्तरकालावच्छेदेन जायमानस्तदीयः शिष्यः 'श्रीरूपगोस्वामी' श्रीगुरोर्मतप्रचारार्थं स्वीयमतप्रसारार्थं वा १६०० वर्षे निम्नलिखितग्रन्थद्वयं रचितवान् । तथाहि- १. 'लघुभागवतामृतम्'-श्रीरूपगोस्वामिरचितः । २. 'भक्तिरसामतसिन्धः'-तत्रैव । ३. 'वैष्णवतोषिणी'-अस्यैव भ्रात्रा श्रीसनातन-गोस्वामिना रचितः । ४. 'बृहद्भागवतामृत'-तत्रैव । ५. 'हरिभक्तिविलास'-तत्रैव । इतः पश्चात्कालावच्छेदेन १७०० ईसवीये वर्षे 'श्रीकृष्णदासकविराजः' अस्यैव चैतन्यमतस्य संस्थापन-व्यवस्थापनदृष्ट्या 'चैतन्यचरितामृत' नामक ग्रन्थं व्यरचयत् । यत्र चैतन्यजीवनचरित्रनिरूपणं समीचीनं कृतवान् श्रीकविराजः । (दर्शनशास्त्रस्येतिहास:)
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