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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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इसलिए वेदांतमत में अन्वयिरुप एक ही अनुमान हैं। अब अनुमान के दो प्रकार का वर्णन करते हैं।
अनुमान के दो प्रकार :- तच्चानुमानं स्वार्थ-परार्थं भेदेन द्विविधम् । तत्र स्वार्थं तुक्तमेव परार्थं तु न्यायसाध्यम् । न्यायो नाम- अवयवसमुदाय : । अवयवाश्च त्रय एव प्रसिद्धाः प्रतिज्ञरहेतूदाहरणरुपाः, उदाहरणोपनयनिगमनरुपा वा, न तु पञ्चावयवरुपाः। अवयवत्रयेणैव व्याप्तिपक्षधर्मतयोरुपदर्शनसम्भवेनाऽधिकावयवद्वयस्य व्यर्थत्वात् ।
-- वह अनुमान स्वार्थ और परार्थ के भेद से (१) स्वार्थानुमान और (२) परार्थानुमान दो प्रकार का हैं। उसमें स्वार्थानुमान तो पहले बताया ही हैं । इसलिए परार्थानुमान को ही अब बताते हैं - परार्थानुमान न्यायसाध्य हैं। अवयवो के समूह को न्याय कहा जाता हैं। अनुमान के अवयव तीन ही प्रसिद्ध हैं। प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण अथवा उदाहरण, उपनय और निगमन ये अवयवो के तीन स्वरुप हैं। परंतु (नैयायिको की तरह हमारे मत में) पांच अवयव नहीं हैं। क्योंकि उपरोक्त किसी भी तीन अवयवो से ही व्याप्ति और पक्षधर्मता का ज्ञान हो जाता होने से अधिक दो अवयवो की कल्पना करना व्यर्थ हैं।
इस तरह से अनुमान प्रमाण के स्वरुपादि के विषय में सोचा। अब उपमान प्रमाण के स्वरुपादि के बारे में सोचेंगे।
(३) उपमान प्रमाण :- तत्र सादृश्यप्रमाकरणमुपमानम् । तथाहिः नगरेषु दृष्टगोपिण्डस्य पुरुषस्य वनं गतस्य गवयेन्द्रियसन्निकर्षे सति भवति प्रतीतिः 'अयं पिण्डो गोसदृश' इति । तदनन्तरं भवति निश्चयः अनेन सदृशी मदीया गौरिति । तत्रान्वय-व्यतिरेकाभ्यां गवयनिष्ठगोसादृश्यज्ञानं करणम् । गोनिष्ठगवयसादृश्यज्ञानं फलम् (वेदांत परिभाषा-उपमान परिच्छेद)
- सादृश्य प्रमा के करण को उपमान प्रमाण कहा जाता हैं । वह इस अनुसार से हैं - जो व्यक्ति ने शहर में "गो" व्यक्ति को देखी हैं, वह व्यक्ति जंगल में जाकर जब "गवय" को देखता हैं - अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय का "गवय" के साथ सन्निकर्ष होता हैं, तब उस व्यक्ति को प्रतीति होती हैं कि, "यह पिण्ड (व्यक्ति) गाय के समान हैं" उसके बाद उसको "यह गवय जैसी मेरी गाय हैं" ऐसे प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान होता हैं । ये दोनों ज्ञानो में से अन्वय-व्यतिरेक के बल से गवय में होनेवाला जो गो सादृश्य ज्ञान (यह गवय गाय जैसी हैं ) हैं, वह करण (उपमान) हैं और गोनिष्ठ गवय का सादृश्य ज्ञान (उसके जैसी मेरी गाय हैं) फल (उपमिति) हैं।
"उपमान' की स्वतंत्र प्रमाण के रुप में सिद्धि करनेवाली युक्तियाँ वेदांतपरिभाषा में से जान लेना। अब आगम प्रमाण के स्वरुप का वर्णन किया जाता हैं।
(४) आगम प्रमाण :- यस्य वाक्यस्य तात्पर्यविषयीभूतसंसर्गो मानान्तरेण न बाध्यते तद्वाक्यं प्रमाणम् । वाक्यजन्यज्ञाने च आकाङ्क्षायोग्यताऽऽसत्तयस्तात्पर्यज्ञानं चेति चत्वारि कारणानि । (वेदांतपरिभाषाआगम परिच्छेद)
भावार्थ :- जिस वाक्य के तात्पर्य का विषय होनेवाला संसर्ग, अन्य प्रमाणो से बाधित न हो, वह वाक्य प्रमाण होता हैं । वाक्यजन्य ज्ञान में आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्यज्ञान ये चार कारण होते हैं।
कहने का आशय यह हैं कि- जिसका पदार्थ संसर्ग किसी भी अन्य प्रमाण से बाधित न हो ऐसे और वक्ता के तात्पर्यविषयीभूत संसर्ग के बोधक वाक्य को ही शब्दप्रमाण कहा जाता हैं। यहा किसी को शंका हो सकती हैं कि, वेदांतमत में घटादि सर्व स्थूल जगत् मिथ्या हैं। वैसी स्थिति में शब्द से व्यक्त किये गये सभी पदार्थ बाधित
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